Rajasthan GK || Indian Polity and Economy || न्यायपालिका (JUDICIARY)

पारिवारिक न्यायालय-

  • पारिवारिक न्यायालय प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के आधार पर कार्य करता है एवं इसमें पारिवारिक विवादों को सुलह समझौते के द्वारा हल करने का प्रयत्न किया जाता है।
  • इसमें किसी वकिल की सहायता लेने की आवश्यकता नहीं होती, बल्कि व्यक्ति अपने मामले की पैरवी स्वयं कर सकता है। पारिवारिक न्यायालय के निर्णय के विरूद्ध अपील किया जा सकता है।
  • 1985 में पारिवारिक विवादों को सुलझाने के लिए पारिवारिक अदालत की भी स्थापना की गई, जिसमें पारिवारिक मामलों को अनौपचारिक रूप में सुलझाया जाता है।

वादी-प्रतिवादी न्याय का आशय-

(i) मूल अधिकारों के हनन की स्थिति में अनुच्छेद-32 के अंतर्गत् व्यक्ति सीधे उच्चतम न्यायालय जा सकता है।

(iii) जिस व्यक्ति के मूल अधिकार का अतिक्रमण हुआ है, वह उच्चतम न्यायालय की शरण ले सकता है।

  • 1980 के दशक में न्यायपालिका ने वादी-प्रतिवादी न्याय की धारणा को बदल दिया। न्याय पालिका ने प्रक्रिया (Locus Standi) में परिवर्तन कर दिया-

(i) न्याय दिलाने के लिए न्यायपालिका स्वयं भी पहल कर सकती है।

(ii) यह दो पक्षों के बीच विवाद का मामला नहीं है, बल्कि यह समूह के अधिकारों की रक्षा से संबंधित है।

 जनहित याचिका (PIL)- आशय- 

  • जनहित याचिका को सामाजिक हित याचिका तथा पत्र अधिकारिता भी कहा जाता है।
  • जनहित याचिका के द्वारा वादी-प्रतिवादी न्याय की संकल्पना को बदल दिया गया।
  • समूह के अधिकारों की रक्षा के लिए तीसरा व्यक्ति भी न्यायपालिका में जा सकता है।
  • न्याय प्राथमिक है, प्रक्रिया नहीं। व्यापक समाज को न्याय दिलाने के लिए प्रक्रियाओं में परिवर्तन भी किया जा सकता है।
  • स्वतः संज्ञान (सू-मोटो एक्शन) में भी न्यायपालिका स्वयं पीड़ित व्यक्ति या समूह तक पहुँचकर उसे न्याय प्रदान कर सकती है।
  • एक पत्र द्वारा भी याचिका दायर की जा सकती है।
  • जनहित याचिका में मामला सामूहिक अधिकारों का होना चाहिए,  कि व्यक्ति विशेष के व्यक्तिगत हितों से संबंधित।
  • जनहित याचिका में न्यायपालिका ने कार्यपालिका एवं प्रशासन को निर्देश दिया है।
  • जनहित याचिका के द्वारा विधायिका को सामान्य निर्देश नहीं दिया जाता।
  • जब जनहित याचिकाओं के सुनवाई के क्रम में न्यायपालिका ने प्रशासन और कार्यपालिका को अत्यधिक निर्देशित करना शुरू किया। इसी के साथ न्यायिक सक्रियता का विवाद गहरा हुआ।

 जनहित याचिका का आरंभ- 

  • इसका आरंभ 1980 के दशक में जस्टिस बी. आर. कृष्णा एय्यर और जस्टिस पी. एन. भगवती द्वारा किया गया।
  • जनहित याचिका को औपचारिक रूप में न्यायपालिका ने मान्यता एस. पी. गुप्ता बनाम् भारत संघ वाद में दी (1982) इसे ही प्रथम जजेजवाद‘ (Judges I Case) भी कहा जाता है।
  • जनहित याचिका का उल्लेख संविधान में नहीं है, बल्कि इसका विकास न्यायपालिका द्वारा किया गया।
  • इससे पहले जनहित याचिका का प्रयोग अमेरिका में हो रहा था।

जनहित याचिका के द्वारा न्यायपालिका की कार्यवाही-

  • न्यायपालिका ने पीड़ित पक्षों को मुआवजा देने का भी निर्देश दिया। जैसाकि पहली बार रूदल शाह वाद में किया गया।
  • जनहित याचिका के द्वारा मौलिक अधिकारों की विस्तार से व्याख्या की गई और न्यायपालिका ने जीवन के अधिकार में स्वास्थ्य, आजीविका और विदेश यात्रा के अधिकार को भी सम्मिलित किया।

 जनहित याचिका का उद्देश्य- 

  • अभाव ग्रस्त लोगों के मूल अधिकार की रक्षा करना।
  • त्वरित एवं सस्ता न्याय प्रदान करना।
  • आम लोगों के हितों अथवा जनहित की रक्षा करना।

जनहित याचिका दायर करने का तरीका (केवल उच्च न्यायालय एवं उच्चतम न्यायालय में)-

  • भारत के मुख्य न्यायाधीश या उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को रजिस्टर्ड पत्र लिखकर।
  • निःशुल्क वैधानिक सहायता समिति के माध्यम से।
  • किसी गैर-सरकारी स्वैच्छिक संगठन या वकील के माध्यम से।

 न्यायिक पुनरावलोकन- आशय- 

  • न्यायपालिका, विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों की संवैधानिकता की जाँच करती है।
  • कार्यपालिका द्वारा किए गए कार्यो की वैधानिकता का परीक्षण है।

विवाद-

  • कुछ लोगों के अनुसार, न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति सीधे अनुच्छेद-13, (2) से मिलती है।
  • जबकि कुछ लोग न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति को संविधान में परोक्ष रूप में निहित मानते हैं। क्योंकि भारतीय शासन व्यवस्था में संविधान सर्वोच्च है। शासन का कोई अंग सर्वोच्च नहीं है। अतः विधि का निर्माण संविधान के अनुरूप होना चाहिए।
  • शासन के प्रत्येक अंग पर प्रतिबंध आरोपित हैं, जिसकी जाँच न्यायपालिका द्वारा की जाती है। अतः लिखित संविधान में न्यायिक  पुनरावलोकन का सिद्धांत अंतर्निहित होता है।

 न्यायिक पुनरावलोकन पर प्रतिबंध- 

  • निम्नलिखित का न्यायिक पुनरावलोकन नहीं किया जा सकता है-

(i) सांसदों के विशेषाधिकार (अनुच्छेद-105)

(ii) विधायकों के विशेषाधिकार (अनुच्छेद-194)

(iii) निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन।

(iv) मंत्रिपरिषद् द्वारा राष्ट्रपति और राज्यपाल को दी गई सलाह।

न्यायिक सक्रियता-

  1. (i) संविधानमें विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया का उल्लेख है, इसके अंतर्गत् न्यायपालिका ने विधि का अभिप्राय स्पष्ट किया और यह देखने का प्रयत्न नहीं किया, कि विधि सही है या गलत। क्योंकि विधि के निर्माण का अधिकार विधायिका का है। न्यायपालिका ने गोपालन वाद (1950) में विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया का समर्थन किया।

   (ii) न्यायपालिका ने मेनका गाँधी वाद में विधि की स्थापित प्रक्रिया को विधि की उचित प्रक्रिया में बदल दिया है, जिसके अनुसार न्यायपालिका ने कहा, कि संसद के द्वारा तार्किक एवं उचित विधि का निर्माण होना चाहिए। विधायिका को मनमानी रूप में विधि के निर्माण का अधिकार नहीं है। अतः यह न्यायपालिका के दृष्टिकोण में बड़ा परिवर्तन था।

  1. संविधानके अनुसार, संसद अनुच्छेद-368 की प्रक्रिया के आधार पर संविधान के किसी भी भाग का संशोधन कर सकती है। परंतु केशवा नंद भारती वाद में न्यायपालिका ने कहा, कि संसद के संविधान संशोधन की शक्ति सीमित है। इसी वाद में न्यायपालिका ने आधारभूत ढाँचे का सिद्धांत विकसित किया तथा यह भी कहा, कि संसद आधारभूत ढाँचे का संशोधन नहीं कर सकती। इसे न्यायिक सक्रियता के रूप में देखा गया।
  2. संविधानमें अनुच्छेद-32 की प्रक्रिया के अनुसार, वादी-प्रतिवादी न्याय की प्रक्रिया के अंतर्गत् उसी व्यक्ति को न्यायपालिका में जाने का अधिकार था, जिसके अधिकारों का हनन किया गया हो-

(i) परंतु न्यायपालिका ने इसे जनहित याचिका के रूप में विस्तृत कर दिया तथा मूल अधिकारों की व्याख्या अत्यधिक विस्तृत रूप में करनी शुरू कर दी, जो मूल संविधान में संकीर्ण रूप में उल्लिखित है।

(ii) न्यायपालिका मूलतः विवाद निस्तारण की संस्था है, लेकिन वर्तमान समय में सामाजिक न्याय का भी निर्माण करना शुरू कर दिया है।

  • न्यायपालिका के इन्हीं परिवर्तित कार्यो को न्यायिक सक्रियता कहा गया है।

न्यायपालिका की आलोचना-

  • कार्यपालिका के अनुसार, न्यायपालिका सक्रिय है।
  • कार्यपालिका के अनुसार, न्यायपालिका का मूल कार्य, विवादों का समाधान करना है,  कि सरकार को निर्देश देना।
  • कार्यपालिका के अनुसार, न्यायपालिका संविधान में दिए गए शक्ति संतुलन की मान्यता (Balance of Power) का उल्लंघन कर रही है।
  • कार्यपालिका के अनुसार, न्यायपालिका को प्रशासन और वित्तीय संबंध के तकनीकी पहलुओं का ज्ञान नहीं होता। इसलिए न्यायपालिका द्वारा किए गए हस्तक्षेप से प्रशासन के संचालन में असुविधा उत्पन्न होती है।
  • न्यायपालिका का प्राथमिक कार्य विवादों का समाधान द्वितीयक न्यायिक सक्रियता तथा सरकार को निर्देश देना नहीं होता है।
  • प्रकाश सिंह वाद जनहित याचिका। उच्चतम न्यायालय, संघ सरकार और राज्य सरकारों को पुलिस सुधार करने को निर्देश देते हैं।
  • वर्तमान समय में न्यायिक सक्रियता का विवाद जनहित याचिकाओं के प्रयोग से आरंभ हुआ।

न्यायिक अतिसक्रियता-

  • संविधान में विधायिका, न्यायपालिका  कार्यपालिका के मध्य, शक्ति विभाजन किया गया है तथा प्रत्येक अंग के अपने निर्धारित कार्य हैं।
  • वर्तमान में न्यायपालिका द्वारा कार्यपालिका को नीति निर्माण संबंधी आदेश दिए गए हैं। यही न्यायिक अतिसक्रियता है।
  • निम्नलिखित मामलों में हाल ही में न्यायपालिका ने कार्यपालिका को आदेश दिया है-

(i) गेहूँ को गरीबों में मुफ्त बाँटने का आदेश।

(ii) केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति को रद्द कर दिया।

(iii) काले धन हेतु सरकार द्वारा गठित विशेष जाँच टीम के सदस्यों पर न्यायपालिका ने आपत्ति उठायी।

(iv) 2G-स्पेक्ट्रम मामले की जाँच उच्चतम न्यायालय द्वारा स्वयँ की जा रही है।

(v) कोलिजियम व्यवस्था के माध्यम से न्यायाधीशों की नियुक्ति स्वयं न्यायाधीश कर रहे हैं। अतः न्यायाधीशों की नियुक्ति में राष्ट्रपति की प्राथमिकता समाप्त हो गयी है।

न्यायिक सुधार (Judicial Reforms)-

  • वेंकट चलैया आयोग ने न्यायाधीशों की नियुक्ति, स्थानांतरण और उनके विरूद्ध दुराचरण की जाँच के लिए एक न्यायिक परिषद् (Judicial Council) बनाने का सुझाव दिया।
  • सरकार ने आपराधिक विधि संहिता सुधार के लिए मालिमथ कमेटीकी स्थापना की।
  • न्यायपालिका में लंबित मामलों को निपटाना सबसे बड़ी चुनौती है, जिसके लिए निम्नलिखित सुधार आवश्यक हैं-

(i) न्यायाधीशों द्वारा संक्षिप्त निर्णय दिए जाएं।

(ii) न्यायाधीशों द्वारा सामूहिक निर्णय दिए जाएं।

(iii) आपराधिक विधि संहिता एवं जनहित याचिकाओं में सुधार किया जाए।

(iv) वकीलों की कार्यशैली में सुधार किया जाए।   

 

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