Rajasthan GK || Indian Polity and Economy || न्यायपालिका (JUDICIARY)

न्याय का तरीका-

  • न्यायाधिकरण की प्रक्रिया सिविल प्रोसीजर कोड (1908) के द्वारा निर्धारित नहीं है, और  ही यह भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 पर आधारित है। यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत पर कार्य करती है।

अपील-

  • न्यायाधिकरण के समक्ष आने वाले मामलों को 6 महीने के अवधि में हल कर लिया जाऐगा और उच्चतम न्यायालय में निर्णय देने के 90 दिन की अवधि में अपील किया जा सकता है। कोई भी व्यक्ति 1,000 रूपये का शुल्क के आधार पर मामला न्यायाधिकरण के समक्ष ला सकता है।

शक्तियाँ-

  • न्यायाधिकरण को सिविल न्यायपालिका की शक्तियाँ प्राप्त है। इसके द्वारा पर्यावरणीय मुद्दे और उससे संबंधित नियमों के क्रियान्वयन से जुड़े हुए मुद्दे लाए जाते हैं। उदाहरण के लिए, जल संरक्षण प्रदूषण अधिनियम, 1974
  • वन्य संरक्षण अधिनियम, 1980
  • वायु नियंत्रण और प्रदूषण अधिनियम, 1981
  • पर्यावरणीय संरक्षण अधिनियम, 1986
  • सार्वजनिक उत्तरदायित्व बीमा अधिनियम, 1991
  • जैव विविधता अधिनियम, 2002
  • वन्य जीव संरक्षण अधिनियम, 1972 तथा भारतीय वन्य अधिनियम, 1927 से जुड़े हुए मुद्दे अधिकरण के समक्ष नहीं लाए जा सकते हैं।

 लोक अदालतें- उद्देश्य- 

  • इन अदालतों की स्थापना विधिक सेवा प्राधिकरण अधि नियम, 1987‘ के तहत किया गया। इन अदालतों का ध्येय आपसी बातचीत के माध्यम से विवादों का निपटारा करना है। यदि दोनों पक्ष सहमत हों, तो दूसरी अदालतों में चल रहे मुकद्दमे लोक अदालतों में हस्तांतरित कर समझौते का प्रयास किया जाता है। इन अदालतों में कोई शुल्क नहीं लगता एवं समझौते की स्थिति में दोनों पक्षों के शुल्क वापस कर दिए जाते हैं।

संरचना-

  • वर्ष-2002 तक ये अदालतें अस्थायी रूप से कार्य करती थीं। वर्ष-2002 में इस अधिनियम में संशोधन करके लोक अदालतों को स्थायी बना दिया गया। इन अदालतों की अध्यक्षता एक न्यायाधीश द्वारा की जाती है तथा इसमें दो अन्य सदस्य होते हैं। जरूरी नहीं है, कि ये सदस्य न्यायाधीश हों, सामान्यतः एक वकील तथा एक सामाजिक कार्यकर्ता इन अदालतों का सदस्य होता है।

कार्य-

  • लोक अदालतों को दीवानी अदालतों की मान्यता प्राप्त है, यह उन आपराधिक मामलों को भी देख सकते हैं, जिनकी प्रकृति समझौते योग्य (Compoundable) है।
  • ये अदालतें पारंपरिक अदालतों से अलग तरह से काम करती हैं, इसमें सुलह, समझौता को वरीयता दिया जाता है। ये अदालतें अधिकतर सिविल मामलों को देखती हैं। भूमि विवाद, संपत्ति संबंधी विवाद, पारिवारिक विवाद आदि मुकद्दमों को इन अदालतों के तहत लाया जाता है। आपसी सहमति से समझौते होने के कारण इन अदालतों के निर्णयों के खिलाफ अपील नहीं हो सकती है।

प्ली बार्गेनिंग (Plea Bargaining)-

  • प्ली बार्गेनिंग, वादी  प्रतिवादी के मध्य एक प्रकार का समझौता है, जिसमें अपराधी अपने गुनाह को इस शर्त पर स्वीकार कर लेता है, कि उसे कम सजा दी जाऐगी एवं इसमें बचाव पक्ष  अभियोजन पक्ष अदालत से बाहर समझौता कर सकते हैं तथा अपराधी अपना अपराध कबूल करता है। अतः अपराधी को निर्धारित दण्ड से कम दण्ड दिया जाता है।

उद्देश्य-

  • इसका उद्देश्य, अदालत और संबंधित पक्षों के समय और धन की बचत करना है। यह व्यवस्था अमेरिका तथा यूरोप के कुछ देशों में सफलतापूर्वक कार्य कर रहा है। भारत में न्यायालय में मुकद्दमों का अत्यधिक बोझ है। अतः यह व्यवस्था न्यायपालिका के कार्य को कम कर सकती है तथा लोगों को शीघ्र न्याय दिला सकती हैं। इस उद्देश्य से भारत में आपराधिक विधि संशोधन अधिनियम, 2005‘ पारित किया गया।
  • यह व्यवस्था केवल उन मामलों में लागू होती है, जिनमें अधिकतम 7 वर्षो का कारागार हो सकता है तथा महिलाओं  बच्चों के खिलाफ अपराधों में लागू नहीं होता है। इस व्यवस्था से फायदा यह है, कि अदालतों के ऊपर से मुकद्दमों का भार कम किया जा सकता है। परंतु प्ली बार्गेनिंगआदर्श न्याय व्यवस्था के सिद्धांतों के खिलाफ है, क्योंकि कभी-कभी निर्दोज़ लोग भी सजा कम कराने के चक्कर में आरोप अपने ऊपर ले लेते हैं।

राष्ट्रीय मुकद्दमा नीति

  • यह नीति वर्ष-2010 में घोषित की गयी, जिसका ध्येय न्यायालय का समय बचाने हेतु सरकार से सहयोग प्राप्त करना है तथा लंबित पडे विवादों में स्वयं सरकार एक पक्ष के रूप में है। अतः मुकद्दमों के निपटाने हेतु सरकार न्यायालय में जिम्मेदारी के साथ सम्मिलित होगी तथा इस नीति में मुकद्दमों के निपटाने का औसत समय 15 वर्ष से घटाकर 3 वर्ष करना है। इस नीति की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-

(i) यह नीति वैकल्पिक विवाद समाधान, व्यवस्था जैसे-लोक अदालतें एवं सुलह-समझौते इत्यादि के माध्यम से मुकद्दमों को निपटाने का समर्थन करती हैं।

(ii) जिन मुकद्दमों में सरकार पक्षकार है, वहाँ तथ्यों का शीघ्र प्रस्तुतिकरण करना, जिससे तथ्यों के अभाव में मुकद्दमे में देरी  हो।

(iii) न्यायालय में यदि सरकार का पक्ष कमजोर है, तो उसे अपनी गलती स्वीकार करते हुए मुकद्दमों से हट जाना चाहिए।

(iv) सरकार द्वारा अपीलीय रिट का कम प्रयोग करना।

(v) सरकारी वकीलों में विशेषज्ञता लाना, जिससे विशेषीकष्टत याचिकाओं पर शीघ कार्यवाही हो।

फॉस्ट ट्रैक कोर्ट Fast Track Court).

  • फॉस्ट टैक कोर्ट के द्वारा मूलतः आपराधिक मामलों को सुलझाया जाता है।
  • फॉस्ट ट्रैक कोर्ट की स्थापना भारत में अप्रैल-2001 में हुई। इनका निर्माण आपराधिक मामलों को त्वरित और निश्चित अवधि में हल करने के लिए हुआ।
  • निर्णय को अन्य न्यायालयों में चुनौती दी जा सकती है।

राजस्व न्यायालय-

  • राजस्व न्यायालय का कार्य राजस्व से संबंधित मामलों की सुनवाई करना है।
  • राजस्व न्यायालय में नायब तहसीलदार का न्यायालय सबसे निचली सीढ़ी पर होता है, उसके बाद तहसीलदार का न्यायालय, तहसीलदार के न्यायालय के बाद उपजिला अधिकारी का न्यायालय तथा जिला अधिकारी के न्यायालय आते हैं। सबसे ऊपर के स्तर पर कमिश्नर का न्यायालय होता है।
  • भारत में न्यायिक प्रशिक्षण केन्द्र भोपाल में है।

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