नीमच छावनी
- कर्नल एबॉट ने अपने सभी भारतीय सैनिक अफसरों को एकत्रित कर उन्हें स्वामी भक्ति की शपथ दिलवाई।
- सैनिक मोहम्मद अली बेग ने एबॉट का प्रतिवाद करते हुए कहा कि “क्या अंग्रेजों ने अपनी शपथ का पालन किया है? क्या अंग्रेजों ने अवध को नहीं हड़प लिया? अतः हिन्दुस्तानी भी शपथ के पालन के लिए बाध्य नहीं है।“
- नसीराबाद के बाद 3 जून, 1857 को नीमच के सैनिकों ने मोहम्मद अली व हीरासिंह के नेतृत्व में विद्रोह किया।
- सैनिकों ने अंग्रेज अधिकारियों के बंगलों पर हमला कर दिया। नीमच से बचकर भागे हुए चालीस अंग्रेज अफसरों को डूंगला गांव (चित्तौड़गढ़) के किसानों ने शरण दी। बाद में सूचना मिलने पर मेजर शावर्स (मेवाड़ के पॉलिटिकल एजेन्ट) ने मेवाड़ की सेना की सहायता से उन्हें छुड़ाकर उदयपुर पहुँचाया जहाँ महाराणा स्वरूप सिंह ने उन्हें पिछोला झील के जगमंदिर में शरण दी।
- नीमच छावनी के कप्तान मेकडोनाल्ड ने किले की रक्षा का प्रयास किया। लेकिन किले में तैनात सेना ने भी संघर्ष शुरू कर दिया तथा सरकारी खजाना लूट लिया। इन्होंने अंग्रेज सार्जेन्ट की पत्नी तथा बच्चों का वध कर दिया।
- नीमच छावनी के सैनिक चित्तौड़गढ़, हम्मीरगढ़, बनेड़ा, शाहपुरा होते हुए निम्बाहेड़ा पहुँचे जहाँ पर अधिकारियों व जनता ने इन सैनिकों का भव्य स्वागत किया। आगे बढ़कर इन सैनिकों ने देवली छावनी को घेर लिया। देवली छावनी के सैनिकों ने भी इनका साथ दिया तथा छावनी को लूट लिया।
- इसके बाद क्रांतिकारी टोंक पहुँचे। टोंक में जून, 1857 को मीरआलम खां के नेतृत्व में जनता ने नवाब के आदेशों का उल्लंघन करते हुए विद्रोही सैनिकों का स्वागत किया तथा वहाँ से आगरा होते हुए दिल्ली पहुँचकर अंग्रेजी सेना पर भीषण आक्रमण किया।
- 8 जून, 1857 को नीमच पर कम्पनी का पुनः अधिकार। 12 अगस्त, 1857 को नीमच में पुनः विप्लव परन्तु शीघ्र शांति स्थापित।
एरिनपुरा छावनी
- 1836 में अंग्रेजों ने जोधपुर राज्य से प्राप्त धन राशि से जोधपुर लिजीयन नामक सेना तैयार की जो एरिनपुरा में थी।
- एरिनपुरा छावनी (जोधपुर रियासत, वर्तमान में पाली जिले में) के पूर्बिया सैनिकों ने 21 अगस्त, 1857 को विद्रोह किया।
- एरिनपुरा छावनी के सैनिकों ने अंग्रेज बस्तियों पर धावा बोला और ‘चलो दिल्ली-मारो फिरंगी’ नारा लगाते हुए दिल्ली प्रस्थान किया।
- खेरवाड़ा व ब्यावर सैनिक छावनी के सैनिकों ने विद्रोह में भाग नहीं लिया।
जन विद्रोह के प्रमुख केन्द्र
- 1857 ई. के विद्रोह काल में कोटा एवं आउवा जन विद्रोह के प्रमुख केन्द्र थे।
- आउवा (पाली) जो जोधपुर राज्य का ठिकाना था, यहाँ अगस्त 1857 को ठाकुर कुशाल सिंह राठौड़ (चम्पावत) के नेतृत्व में विद्रोह हुआ।
- ठा. कुशाल सिंह चम्पावत की सहायता आसोप, आलनियावास, गुलर, लाम्बिया, बांता, रूदावास, खेजड़ला के जागीरदारों ने की।
- ठा. कुशाल सिंह सुगाली माता के परम भक्त थे। विद्रोह दमन के पश्चात अंग्रेजों ने महाकाली सुगाली माता के मंदिर को तोड़ दिया तथा देवी को अजमेर ले गये जो वर्तमान में पाली के बांगड़ संग्रहालय में विद्यमान है।
- 8 सितम्बर 1857 को कुशालसिंह के नेतृत्व में विद्रोही सैनिकों ने जोधपुर की राजकीय सेना (तख्तसिंह की) को बीठूडा (पाली) के युद्ध में हराया इसमें जोधपुर राज्य का सेनापति अनाड़सिंह पंवार मारा गया।
- 18 सितम्बर, 1857 को कुशालसिंह के नेतृत्व मे विद्रोहियों ने जोधपुर के पॉलिटिकल एजेन्ट मोकमेसन व ए.जी.जी. जॉर्ज पैट्रिक लॉरेन्स की सेना को चेलावास के युद्ध में हराया। इसी युद्ध में मोकमेसन मारा गया जिसके शव को क्रान्तिकारियों ने आउवा के किले के दरवाजे पर टांग दिया।
- कुछ क्रान्तिकारी आसोप के ठाकुर शिवनाथ सिंह के नेतृत्व में दिल्ली की ओर कूच कर गये परन्तु रास्ते में नारनौल में ब्रिगेडियर गेरार्ड के नेतृत्व वाली अंग्रेजी सेना ने 16 नवम्बर, 1857 को इन्हें हरा दिया व ठाकुर शिवनाथ सिंह को आत्मसमर्पण करना पड़ा।
- अंत में कर्नल होम्स की सेना ने 20 जनवरी, 1858 को आउवा के विद्रोहियों को हराया।
- सलुम्बर के जागीरदार केसरीसिंह एवं कोठारिया (मेवाड़) के जागीरदार जोधसिंह ने आउवा के ठा. कुशालसिंह को शरण दी।
- 8 अगस्त, 1860 को ठाकुर कुशालसिंह चम्पावत ने नीमच में अंग्रेजों समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। मेजर टेलर की अध्यक्षता में एक जाँच आयोग ने इनके खिलाफ जाँच की तथा 10 नवम्बर, 1860 को इन्हें रिहा किया गया।
- कोटा में विद्रोह का कारण यह था कि ब्रिटिश अधिकारियों ने कोटा के महाराव रामसिंह को जो गुप्त परामर्श दिया था वह कोटा के सैनिकों को मालूम हो गया इससे नाराज हो सैनिकों ने विद्रोह किया।
- 15 अक्टूबर, 1857 को कोटा राज पलटन की सेना जिसमें ‘नारायण पलटन‘ के सभी सैनिक व ‘भवानी पलटन‘ के अधिकांश सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। नेतृत्व जयदयाल व मेहराब खां कर रहे थे।
- कोटा राज्य की सेना एवं जनता ने विद्रोह के दौरान मेजर बर्टन व डॉ. सेल्डर व कांटम की हत्या कर दी तथा मेजर बर्टन का सिर काटकर कोटा शहर में घुमाया गया था। महाराव रामसिंह को नजरबंद कर दिया एवं राज्य की सत्ता विद्रोहियों ने अपने हाथ में ले ली।
- कोटा महाराव ने मथुराधीश मंदिर के महंत गुसाई जी महाराज को मध्यस्थ बना विद्रोहियों के साथ सुलह करने के प्रयास किए।
- मार्च, 1858 में मेजर जनरल रॉबर्ट्स के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना ने कोटा की सेना पर आक्रमण किया। 30 मार्च, 1858 को कोटा पर अंग्रेजी सेना का अधिकार हो गया। जयदयाल और मेहराब खाँ को फाँसी दे दी गई।
- करौली के महारावल मदनपाल की सेना भी मेजर जनरल रॉबर्ट्स के साथ थी।
- 6 माह तक क्रांतिकारियों के अधीन रहने के बाद कोटा पुनः महाराव को प्राप्त हुआ। इस प्रकार कोटा में सर्वाधिक भीषण और व्यापक विप्लव हुआ। कोटा में अंग्रेज विरोधी भावना सेना में ही नहीं जनता में भी व्याप्त थी तथा क्रांति की यह योजना बहुत पहले से ही आकार लेना प्रारम्भ हो गई थी।
- अंग्रेजों के विरूद्ध इतना सुनियोजित व सुनियंत्रित संघर्ष राजस्थान में अन्यत्र कहीं नहीं हुआ था।