राजस्थान सामान्य ज्ञान : लोक वाद्य

  1. सुरमण्डल

लकड़ी के तख्ते पर तार कसे हुए होते हैं तथा उन तारों को झंकृत करने पर सुर उत्पन्न होते हैं।

  1. रावणहत्था
  • इस वाद्य का प्रयोग मुख्य रूप से पाबूजी के भोपे, पाबूजी की फड़ बाचते समय करते हैं।
  • यह कमान (गज) से बजने वाला वाद्य है जिसमें तार की तरह घोड़े की पूँछ के बाल लगे होते है।
  • रावणहत्था राजस्थान का अत्यन्त प्राचीन लोक वाद्य है।
  • इस वाद्य में मढ़े हुए भाग पर सुपारी की लकड़ी की घुड़च (घोड़ी) लगाई जातीहै।
  • यह नारियल के कटोरे पर खाल मढ़कर बनाया जाता है।
  1. जन्तर
  • दो गोल तुंबियो पर लगभग तीन चार फुट लम्बा बांस का दण्ड और चौदह पर्दे लगे होते है।
  • इसमें लोहे के चार तार लगे होते हैं।
  • इस वाद्य को गुर्जर जाति (बगड़ावत) के ‘भोपे’ बजाते है जो देवनारायण जी की फड़ के सामने खड़े होकर भजन व गीत गाते हुए बजाते है।
  • भोपे लोग इसे देवताओं का वाद्य मानते है।
  • ‘सौ-मंतर तथा एक-जंतर’ की लोकोक्ति इसी संदर्भ में प्रचलित है।
  1. भपंग
  • यह वाद्य लम्बी आल के तुम्बे का बना होता है, जिसकी लम्बाई डेढ़ बालिश्त और चौड़ाई दस अंगुल होती है। इसके पेंदे पर पतली खाल का मढ़ाव रहता है।
  • खाल के मध्य भाग में छेद करके तांत का तार निकाला जाता है। तांत के ऊपरी सिरे पर लकड़ी का गुटका लगा रहता है। तुम्बे को बायीं बगल में दबाकर तांत को बायें हाथ से तनाव देते हुए दाहिने हाथ की नखूनी से आघात करने पर लयात्मक ध्वनि निकलती है।
  • इस लोक वाद्य का खोल छोटी ढोलक के आधा भाग जितना तथा आदमी की बगल में दबाया जा सके वैसा होता है।
  • इस वाद्य का सर्वाधिक प्रचलन अलवर क्षेत्र में है।
  • भपंग का जादूगर – जहूर खां मेवाती (अलवर)
  1. सांरगी
  • तत् वाद्यो में सांरगी श्रेष्ठ मानी जाती है।
  • इसका उपयोग शास्त्रीय संगीत में गायन की संगति के लिए मुख्य रूप से किया जाता है।
  • यह वाद्य तून, सागवान, कैर या रोहिड़े की लकड़ी से बनाया जाता है।
  • इसमें कुल 27 तार होते है तथा ऊपर की तांते बकरे की आन्तों से बनी होती है।
  • इसका वादन गज से किया जाता है जो घोड़े की पूँछ के बालों से निर्मित होता है।
  • कई तरह की सांरगियाँ प्रचलित है – सिन्धी सांरगी, गुजरातन सांरगी, डेढ़ पसली सारंगी, धानी सारंगी
  • सिन्धी सांरगी में तारों की संख्या अधिक होती है, यह सांरगी का उन्नत व विकसित रूप है।
  • गुजरातण सांरगी इसका छोटा रूप है, जिसमें तारों की संख्या केवल सात होती है।
  • सांरगी वादन मुख्य रूप से जैसलमेर और बाड़मेर के लंगा जाति के लोग करते हैं।
  • मरूक्षेत्र में जोगी लोग सांरगी के साथ गोपीचन्द, भरथरी सुल्तान निहालदे आदि के ख्याल गाते है।
  • मेवाड़ में गड़रियो के भाट भी सांरगी वादन में निपुण होते है।
  1. कमायचा
  • यह सांरगी जैसा वाद्य है, जिसकी बनावट सांरगी से भिन्न है।
  • सांरगी की तबली लम्बी होती है किन्तु इसकी गोल व लगभग डेढ़ फुट चौड़ी होती है।
  • इसे बजाने हेतु गज का उपयोग किया जाता है तथा इसमें कुल 16 तार होते है।
  • इस वाद्य का प्रयोग मुस्लिम शेख करते है जिन्हे माँगणियार भी कहा जाता है।
  • प्रमुख कलाकार – कमल साकर खाँ
  1. रवाज
  • यह वाद्य मुख्यतः चारणों के याचक रावल तथा भाटों का है।
  • सांरगी जाति का यह वाद्य नखवी (मिजराब) से बजाया जाता है।
  • इसके कुल तारों की संख्या चार है।
  • इसे रावल लोग अपने लोक नाट्य और ‘रम्मत’ (रावलो की रम्मत प्रसिद्ध) कार्यक्रमों में बजाते है।
  1. रबाब
  • इस प्रदेश के लोक वाद्यों में ‘रबाब (अरबी लोक संगीत में भी प्रयुक्त)’ को एक ख्यातनामा लोक वाद्य के रूप में जाना जाता है।
  • यह भाट अथवा राव जाति का प्रमुख वाद्य है।
  • इस वाद्य का अधिक प्रचलन मेवाड़ में है।
  • इस वाद्य में कुल पांच तार होते है।
  • इसका वादन नखवी (जवा, मिजराब) से किया जाता है।
  1. सुरिंदा
  • इस वाद्य का प्रयोग मारवाड़ के लोक कलाकार, विशेष कर लंगा जाति के लोगों द्वारा विभिन्न वाद्यों की संगत के लिये किया जाता है।
  • इस वाद्य का ढांचा रोहिड़ा की लकड़ी से बनाया जाता है।
  • इसमें कुल तीन तार होते है। इसे गज से बजाया जाता है जिस पर घुंघरू लगे रहते है।
  • राजस्थान संगीत नाटक अकादमी का प्रतीक चिह्न ‘सुरिंदा’ है।
  1. दुकाको
  • यह भील जाति का वाद्य है, जो 6 या 8 इंच की पोली बेलनाकार लकड़ी से बना होता है।
  • इस वाद्य को बैठकर घुटनों के नीचे दबाया जाता है तथा तार को ऊपर की ओर कसकर पकड़ा जाता है और हाथ से इच्छानुसार लय, ताल में बजाया जाता है।

 

 

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