राजस्थान सामान्य ज्ञान : लोक नृत्य

  1. वालर नृत्य
  • यह सिरोही, पाली, आबू व जालौर के आदिवासी गरासियों का प्रमुख नृत्य हैं। इसके दो प्रकार है –

(1) एक प्रकार जिसमें केवल गरासियाँ महिलाएँ ही भाग लेती हैं।

(2) दूसरे प्रकार में गरासिया स्त्री एवं पुरुष दोनों भाग लेते हैं।

  • यह नृत्य एक प्रकार से ‘घूमरा’ का पर्याय भी कहा जाता है।
  • स्त्रियों द्वारा नाचे जाने वाला ‘वालर’ वाद्य विहीन होता है। जबकि स्त्री-पुरुष युगल रूप में किया जाने वाले ‘वालर’ में ढोल बजाया जाता है।
  • इस नृत्य की शुरुआत में एक पुरुष हाथ में छाता या तलवार लेकर नृत्य प्रारम्भ करता है।
  • वालर के गीतों में गरासियों के गौरवमय इतिहास तथा स्वाभिमानी शूरमाओं द्वारा राजाओं और अग्रेजों से लोहा लेने का शौर्यपरक विवरण मिलता है।
  • प्रसिद्ध वालर नतृक – जवाहरलाल

11.भैरव नृत्य 

  • होली के दो दिन बाद ब्यावर में बादशाह-बीरबल का मेला भरता है। इस दिन पूरे शहर में बादशाह की सवारी निकाली जाती है।
  • मेले का मुख्य आकर्षण बीरबल होता है जो सवारी के आगे मयूर नृत्य करता चलता है। यह नृत्य लगातार दो दिन तक चलता है। यह शक्ति दिव्य शक्ति होती है जो भैरव शक्ति की प्रतीक कही जाती है।
  • भैरव शक्ति को प्राप्त करने के लिए ‘बीरबल’ सवारी में आने से पूर्व भैरव मंदिर में जाता है और एक घंटे तक उपासना के रूप में नृत्य करता है जो भैरव नृत्य के नाम से जाना जाता हैं।
  • इस नृत्य से भैरव, बीरबल पर रीझ कर इतनी शक्ति देता है कि बीरबल लगातार सवारी में नृत्य करता अथक बना रहता हैं।
  • भैरव से अपार शक्ति प्राप्त कर बीरबल बादशाह की सवारी में जो नृत्य करता है वह मोर नृत्य या मयूर नृत्य के नाम से जाना जाता है।
  • सवारी में बादशाह बना व्यक्ति अकबर के नौ रत्नों में से एक टोडरमल का स्वरूप है।
  • सवारी के दौरान शहर के सभी स्त्री-पुरुष-बच्चे बादशाह से खर्ची की मांग करते हुए ‘खर्ची दो, खर्ची दो’ कहते हैं। बादशाह खर्ची के रूप में रंग-बिरंगी अबीर-गुलाल की पुड़िया फैंकता-लुटाता चलता है।
  • बीरबल का पात्र (बाना) व्यास परिवार के व्यक्ति धारण करते हैं।
  1. भवाई नृत्य
  • यह व्यावसायिक नृत्य है।
  • यह मूलतः मटका नृत्य है किन्तु भवाई जाति में प्रचलित होने के कारण इसका नाम ‘भवाई’ पड़ा।
  • भवाई नृत्य के प्रवर्तक ‘बाघाजी (नागोजी)’ है परन्तु इस नृत्य को विशिष्ट पहचान भारतीय लोक-कला मण्डल (उदयपुर) के संस्थापक देवीलाल सामर ने एक भील दयाराम के माध्यम से दिलाई।
  • यह नृत्य व्यावसायिक नृत्यों में सर्वाधिक चर्चित हैं।
  • भवाई नर्तक अपने सिर पर मटका लिये रहता है। मटकों की संख्या एक से लेकर एक के ऊपर एक करके पंद्रह-बीस तक होती है।
  • भवाई एक कलात्मक जाति है जो परम्परा से रात-दिन ख्याल-तमाशे कर अपने यजमानों को रिझाती आई है।
  • भवाई में नृत्य नाटिकाएँ – शंकरिया, ढोलामारू, बीकाजी, सूरदास, बड़ी डोकरी
  • यह नृत्य मुख्यतः पुरुष प्रधान है।
  • प्रथम भवाई महिला नर्तक – पुष्पा व्यास (जोधपुर)
  • प्रमुख भवाई कलाकार – रूपसिंह शेखावत (जयपुर), स्वरूप पंवार-तारा शर्मा (बाड़मेर)
  • भीलवाड़ा के कलाप्रेमी निहाल अजमेरा ने अपनी पौत्री वीणा को इस नृत्य में प्रवीण करते हुए 63 मंगल कलश का नृत्य तैयार कर उसका नाम ‘ज्ञानदीप’ दिया।
  • जयपुर की अश्मिता काला ने 111 घड़े सिर पर रखकर नृत्य करके ‘लिम्का बुक ऑफ वर्ल्डरिकॉर्ड’ में अपना नाम दर्ज कराया।
  • द्रोपदी, कजली, कुसुम, श्रेष्ठा सोनी (उदयपुर) प्रसिद्ध भवाई नृत्यांगना हुई।
  • तेज तलवार पर नृत्य करना, काँच के टूकड़ों पर नृत्य करना आदि भवाई नृत्य की प्रमुख विशेषता है।
  1. अग्नि नृत्य
  • दहकते अंगारो पर महकते फूलों की तरह जसनाथी सम्प्रदाय के लोगों द्वारा किया जाने वाला प्रमुख नृत्य।
  • इस नृत्य का जन्म स्थल कतरियासर (बीकानेर) माना जाता हैं।
  • जसनाथ जी के मंदिर में मेले भरते है और जुम्मे-जागरण के साथ-साथ अग्नि नृत्य के आयोजन होते हैं। गाने वाले भी ये ही सिद्ध और नाचने वाले भी ये ही सिद्ध।
  • शमी वृक्ष (खेजड़ी) की ढेर-सी लकड़ियां एकत्र कर चबूतरा सा बना दिया जाता है। इन लकड़ियों की आंच बहुत तेज होती हैं। जब लकड़ियां जलकर अंगारों के रूप में दहकने लगती है तब गायक विशेष सबद गाना प्रारम्भ कर देते हैं। तभी जसनाथी अंगारों के मंच पर जा कूदते है। यहां अंगारों की अंगुलियां भर-भर उछालते हैं जैसे पानी की बूंदे उछाली जाती है।
  • यहां कोई तन्त्र-मन्त्र या टोटका नही। केवल सिद्धाचार्य जसनाथजी की असीम कृपा है। ‘फतैह-फतैह’ कहकर ‘धुणा’ की अग्नि पर कूदने का यह आश्चर्यजनक कमाल देखते ही बनता है।
  • इस नृत्य में आग, राग व फाग तीनों का समन्वय है।
  • जसनाथी सिद्ध रूस्तमजी ने औरगंजेब को परचा दिखलाया।
  • जसनाथी सिद्ध गृहस्थी होते हैं।
  • आश्विन, माघ व चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की सप्तमी को जसनाथी सिद्धों का अग्नि नृत्य आयोजित होता है।
  • इस सम्प्रदाय में रहने वालों के लिए 36 नियम पालने आवश्यक है। इन नियमों का पालनकर्ता जसनाथी कहलाता है।
  • जसनाथ जी को कतरियासर की जमीन ‘सिकन्दर लोदी’ ने भेंट की थी।
  • इस नृत्य के साथ-साथ नगाड़ा वाद्य यंत्र बजाया जाता है।
  • इस नृत्य में केवल पुरुष भाग लेते हैं। वे सिर पर पगड़ी, अंग में धोतीकुर्ता और पांवों में कड़ा पहनते हैं।
  1. तेरहताली नृत्य
  • कामड़ जाति की महिलाओं द्वारा (बहुएँ) किया जाने वाला व्यावसायिक नृत्य।
  • कामड़ जाति बाबा रामदेवजी की उपासक है जो रामदेवजी के मेले में रात-रात भर भजन तथा ब्यावले गाते हैं और इस जाति की महिलाएँ तेरहताली का प्रदर्शन करती है।
  • पुरुष महिलाओं के साथ तानपुरा (तंदुरा) पर भजन गाता है।
  • इस नृत्य के समय रामदेवजी महाराज की तस्वीर या फिर प्रतीक रूप में उनको चढ़ाया जाने वाला कपड़े का घोड़ा रखते है।
  • तेरहताली का प्रदर्शन तेरह मंजीरों की सहायता से किया जाता है। तेरह मंजीरों की निरन्तर चलती रहती संगीत लहरी में जमीन पर बैठे-बैठे तो कभी लेटे-लेटे कामड़ महिलाएं तेरह प्रकार के भावांग प्रस्तुत करती है।
  • तेरह मंजीरो में नौ मंजीरे दांये पाव पर बांधे जाते हैं। दो हाथों के दोनों और ऊपर कोहनी की जगह तथा एक-एक दोनों हाथों में रहते है। हाथ वाले मंजीरे अन्य मंजीरो से टकराते-छूते हुए टन-टन की ध्वनि देते है। इसी ध्वनि के साथ-साथ कामड़ औंरते विविध हावभाव व्यक्त करती है।
  • इस नृत्य की प्रसिद्ध नृत्यांगना है – मांगीबाई, दुर्गाबाई (पादरला, पाली)
  • पादरला गांव (पाली) कामड़ पंथियों का प्रमुख केन्द्र है।
  • तेरहताली नृत्य में निम्न प्रदर्शन किये जाते हैं –

(1) अनाज कूटना (2) उसे साफ करना (3) चक्की में पीसना (4) आटा गूंदना (5) आटे से रोटले पोना (6) दूध दूहना (7) दही बिलोना (8) मक्खन निकालना (9) चरखा चलाना (10) सूत लपेटना (11) नेजा बुनना (12) सिर पर कलश रखना (13) खेत में खड़ी पकी फसल काटना। इस प्रकार के तेरह प्रकार के हाव-भाव व्यक्त किये जाते हैं।

  • जहां-जहां कामड़ बस्ती होती है वहां-वहां रामदेवजी का मंदिर अवश्य होता  है।
  • सभी कामड़ पुरुष अपने सिर पर ‘भगवा रंग’ का साफा धारण करते है।
  • तेरहताली प्रदर्शन के समय अब तो रामदेवजी की विरूदावली के भजन ही मिलते है किन्तु इनसे पूर्व देवी हिंगलाज के भजन गाये जाते थे।

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