लोक नृत्य
- गैर
- केवल पुरुषों द्वारा किया जाने वाला नृत्य।
- गैर का मूल शब्द ‘घेर’ है जो घेरे से सम्बन्धित है।
- मेवाड़ और बाड़मेर क्षेत्र में पुरूष लकड़ी की छड़ियां लेकर गोल घेरे में नृत्य करते हैं यही नृत्य गैर नृत्य के नाम से प्रसिद्ध है। इसे गैर घालना, गैर रमना, गैर खेलना तथा गैर नाचना जैसे विभिन्न नामों से भी जाना जाता है।
- गैर करने वाले ‘गैरिये’ कहलाते है। यह नृत्य होली के दूसरे दिन से ही प्रारम्भ होकर करीब पन्द्रह दिन तक चलता रहता है।
- इस नृत्य की संगति में प्रमुख वाद्य हैं – ढोल, बांकिया ऐर थाली।
- गैर नृत्य में प्रयुक्त डंडे ‘खांडे’ नाम से जाने जाते है। इसके लिए पहले गूंदी वृक्ष से टहनियां काटकर लाते है और उनकी छाल हटाकर एक-एक इंच की दूरीरखते हुए उसी पर उस छाल को लपेट देते है। इसके बाद उस टहनी (डंडे) को अग्नि का स्पर्श देकर छाल हटा ली जाती है। हटाई हुई छाल की जगह अग्नि का असर नहीं रहने से वह भाग सफेद ही रहता है जबकि बिना छाल वाला भाग काला अथवा चौकलेटी रंग लिये उभर जाता है तब पूरा डंडा जेबरे की शक्ल सा बड़ा खूबसूरत लगने लगता है। ऐसी छड़ियों अथवा खांडों से जब गैर खेली जाती है तो उसका रंग ही कुछ और होता है।
- यही गैर कहीं-कहीं पर खांडो की बजाय ‘तलवारों’ से भी खेली जाती है। इसमें नर्तक के एक हाथ में नंगी तलवार रहती है। जबकि दूसरे हाथ में उसकी म्यान शोभा पाती है।
- नाथद्वारा में शीतला सप्तमी से पूरे माह तक गैर का आयोजन रहता है। यहाँ गैर की पहली प्रस्तुति श्रीनाथजी को समर्पित होती है।
- इस नृत्य में भीलसंस्कृति की प्रधानता रही है।
- इस नृत्य के साथ-साथ संगीत की लड़ियाँ गाई जाती है वे किसी वीरोचित गाथा या प्रेमाख्यान के खण्ड होती हैं।
- वागड़ क्षेत्र में गैर में युवतियां भी सम्मिलित होती है।
- सन् 1970 ई. में भीलवाड़ा में वहां के कलाप्रेमी निहाल अजमेरा ने गैर मेला प्रारम्भ किया जो अब लोक-मेले के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका है।
गैरों के प्रकार –
मोटे रूप में चार प्रकार है –
(1) डांडिया गैर :-
- इसमें नर्तक के हाथ में डाण्डिया होती है। बीकानेर के मरूनायक के मंदिर चौक में डांडिया की रंगत देखते ही बनती है। एक बार बीकानेर के महाराजा गंगासिंह यहाँ पर डाण्डियों के खेल देखने के लिए पधारे थे। कलकत्ता व मुम्बई को डाण्डियों के खेल की देन बीकानेर को है।
- डांडिया गैर की पुर्णाहूति भैरूजी व सीवल माता गाकर होती है।
- प्रथम दिन की शुरूआत गणेशजी व रासलीला के गायन से होती है।
(2) आंगिया गैर/आंगी-बांगी :-
- चैत्र बदी तीज को आयोजित होने वाला गैर नृत्य।
- मुख्य आयोजन स्थल – लाखेटा गाँव (बाड़मेर)।
- नाचने वाले गैरियों के हाथों में एक-एक मीटर की डंडियाँ रहती है जो आजुबाजु के नृत्यकार की डंडियों से टकराकर खेली जाती हैं।
- चंग, ढोल व थाली इसके प्रमुख वाद्य है।
(3) चंग गैर :-
- शेखावाटी क्षेत्र में चंग हाथ में लेकर किया जाता है।
- इस नृत्य का प्रारम्भ धमाल गीत से होता है।
- यह पुरुष प्रधान नृत्य है।
- शेखावाटी क्षेत्र में गीदड़ और चंग नृत्य में महिला पात्र (पुरुष बना हुआ) जो नृत्य करती है उसे महरी या गणगौर कहते है।
- होली के दिनों में ब्रज प्रभावित क्षेत्रों में यह नृत्य ‘होरी नृत्य’ के नाम से भी जाना जाता है।
- इस नृत्य में चंग या ढप के साथ बांसुरी भी बजाई जाती है।
(4) तलवार गैर (एक हाथ में तलवार एक हाथ में म्यान) :-
- मेनार (मेणार) उदयपुर, नामक गांव की तलवारों की गैर प्रसिद्ध है।
- मेनार में यह गैर वहाँ के प्रसिद्ध ऊंकारेश्वर चौरा (चौराहा) पर होती है। इसे ऊंकार महाराज का चौरा भी कहते हैं।
- ढोल पर डंडे से प्रहार-‘डाका’ कहलाता था।
- ढोल के तीन डाके के साथ सैनिकों के सिर को काटकर वहीं गाड़ दिया गया था। ये अमरसिंह के समय से जुड़ी घटनाएं हैं।