– नागौर :- राजस्थान का धातु नगर।
मणिहारे एवं लखारे :-
लखारा :- चूड़ियाँ बनाने एवं बेचने का धन्धा करने वाला कारीगर।
कातर्या :- काँच की चूड़ियाँ।
लाखोलया :- लाख की छोटी-छोटी अँगूठियाँ।
जन्दरी :- लकड़ी से बना यंत्र, जिस पर चूड़ीगर चूड़ियां उतारता हैं।
मोकड़ी :- लाख की बनी चूड़ियाँ। जयपुर लाख की चूड़ियों के लिए प्रसिद्ध है। लाख के आभूषणों एवं खिलौनों का निर्माण उदयपुर में अधिक होता है।
मूंठिया :- चार या आठ चूड़ियों का जोड़ा।
काष्ठ कला :- चित्तौड़गढ़ का ‘बस्सी’ नामक कस्बा काष्ठ कला के लिए प्रसिद्ध है। बस्सी में काष्ठ कला का जन्मदाता प्रभात जी सुथार को माना जाता है। प्रभात जी की प्रथम प्रतिमा गणगौर की प्रतिमा थी। यह प्रतिमा तत्कालीन शासक रावत गोविन्दसिंह के समय 1652 ई. में बनाई।
– खाती / बढ़ई :- लकड़ी का काम करने वाला कारीगर।
– बरसोद :- खाती (सुथार) को वर्षान्त पर फसल से मिलने वाला अनाज।
– बाजोट :- लकड़ी की कलात्मक चौकी जिस पर पूजा सामग्री रखी जाती है।
– झेरणी / ढेरणी :- दही आदि मंथने के लिए लकड़ी की छोटी रेई।
– पातड़ा :- साधुओं का भोजन करने का चौड़ा-चपटा पात्र।
– कावड़ :- मंदिरनुमा काष्ठकलाकृति, जिसमें कई द्वार होते हैं और उन पर देवी-देवताओं के पौराणिक चित्र बने होते हैं। कावड़ के सभी दरवाजे खोल देने पर राम-सीता के दर्शन होते हैं। कावड़ को लाल रंग से रंगा जाता है जिस पर काले रंग से चित्र बनाये जाते हैं। कावड़ का निर्माण बस्सी (चित्तौड़गढ़) की खेरादी जाति के लोगों द्वारा किया जाता हैं।
– बेवाण :- काष्ठ से निर्मित मंदिर। इन बेवाणों को बनाने एवं इन पर चित्रकारी का कार्य कलात्मक होता है। बेवाण को ‘मिनिएचर वुडन टेम्पल’ भी कहा जाता है। बस्सी के कलाकार ‘बेवाण’ बनाने में निपुण हैं।
– काष्ठ पर कलात्मक शिल्प बनाने में जेठाणा (डूंगरपुर) प्रसिद्ध है।
– कठपुतलियाँ एवं खिलौने :- राजस्थान में काष्ठ से बनी कलात्मक चित्रांकन से युक्त कठपुतलियाँ राजस्थान की परम्परागत हस्तशिल्प की अनूठी सौगात हैं। कठपुतली की जन्मस्थली राजस्थान को माना जाता है। कठपुतली बनाने का काम आमतौर पर उदयपुर व चित्तौड़गढ़ में होता है। कठपुतली नाटक में स्थानक ही नाटक का मूल स्तम्भ होता है। कठपुतलियाँ ‘आडु की लकड़ी’ की बनाई जाती है। स्व. श्री देवीलाल सामर के नेतृत्व में भारतीय लोक कला मण्डल, उदयपुर ने कठपुतली कला का विस्तार तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। दादा पदम जी को कठपुतलियों का जादूगर कहा जाता है।
– गणगौर बनाने का कार्य चित्तौड़ के बस्सी में किया जाता है।
– गलियाकोट (डूंगरपुर) :- रमकड़ा उद्योग।
– बाड़मेर लकड़ी पर कलात्मक खुदाई करके फर्नीचर बनाने के लिए प्रसिद्ध है।
– चूरू चंदन काष्ठ पर अति सूक्ष्म नक्काशी के लिए देश-विदेश में विख्यात है। स्व. मालचन्द बादाम वाले, चौथमल, नवरत्नमल चन्दन की काष्ठ कला के लिए विख्यात है।
– चन्दन काष्ठ कला के चितेरे :- पवन जांगिड़, चौथमल जांगिड़, महेशचन्द्र, रमेशचन्द्र जांगिड़, मूलचन्द्र जांगिड़।
– मेड़ता के खस के पखे तथा लकड़ी के खिलौने प्रसिद्ध है।
– नाई गाँव (उदयपुर) :- लकड़ी के आभूषणों के लिए प्रसिद्ध।
– पालणां :- छोटे बच्चों के लिए हींदा डालने और खाखला आदि भरने के लिए काम में आने वाला छाबड़ा।
– चेला :- काष्ठ के तराजू के पलड़े।