बेटे के जन्म पर पीला व बेटी के जन्म पर गुलाबी पोमचा देने का रिवाज है।
जयपुर का पोमचा पूरे राज्यभर में प्रसिद्ध है।
पोमचा सामान्यत: पीले रंग का ही होता है।
पीले पोमचे का ही एक प्रकार ‘पाटोदा का लूगड़ा’ सीकर के लक्ष्मणगढ़ तथा झ़ंुझुनूं का मुकन्दगढ़ का प्रसिद्ध है।
चीड़ का पोमचा राज्य के हाड़ौती क्षेत्र में प्रचलित है।
लहरिया :- राज्य में विवाहिता स्त्रियों द्वारा ओढ़ी जाने वाली लहरदार ओढ़नी।
लहरिया के प्रकार :- फोहनीदार, पचलड़, खत, पाटली, जालदार, पल्लू, नगीना।
राज्य में जयपुर का ‘समुद्र लहर’ लहरिया सबसे अधिक प्रसिद्ध है।
मोठड़ा :- लहरिये की लहरदार धारियां जब एक-दूसरे को काटती है तो वह मोठड़ा कहलाती हैं। राज्य में जोधपुर का मोठड़ा प्रसिद्ध है।
बडूली :- वर पक्ष की ओर से वधू के लिए भेजी जाने वाली चूनड़।
चुनरी / धनक :- बूँदों के आधार पर बनी बँधेज की डिजाइन चुनरी कहलाती है, तो बड़ी-बड़ी चौकोर बूँदों से युक्त अलंकरण को धनक कहते है। जोधपुर की चुनरी राज्यभर में प्रसिद्ध है। बारीक बंधेज की चुनरी शेखावटी की प्रसिद्ध है।
(घ) बुनाई :- ‘काेली’ एवं ‘बलाई’ वस्त्र बुनने का काम करने वाली हिन्दू जातियाँ हैं।
राज्य में वस्त्र से सम्बन्धित हस्तकलाएँ –
(i) कोटा डोरिया की मसूरिया साड़ी :- सूती धागों के साथ रेशमी धागों व जरी के काम से युक्त साड़ी।
प्रमुख केन्द्र :- कैथून (कोटा)। कोटा रियासत के शासक झाला जालिम सिंह ने मैसूर से कुछ बुनकरों को बुलाया जिसमें बुनकर महमूद मसूरिया ने यह कला प्रारम्भ की।
सूत और सिल्क के ताने-बाने के लिए राज्य में कैथून और जैनब मसूरिया के लिए मांगलोद, मलमल के लिए तनसुख एवं मथानिया, ऊन के लिए बीकानेर और जैसलमेर तथा लोई के लिए नापासर प्रसिद्ध हैं।
(ii) जरी / जरदोजी वर्क :- धातु से बने चमकदार तारों से कपड़े पर कशीदाकारी। राजस्थान में जरी की कला सवाई जयसिंह के काल में सूरत से जयपुर लायी गयी थी।
(iii) जसोल की जट पट्टी :- जसोल गाँव (बाड़मेर) अपने ‘जट पट्टी’ उद्योग के लिए प्रसिद्ध है। जट पटि्टयाँ बकरी के बालों से बनती हैं।
(iv) दरी उद्योग के लिए प्रसिद्ध :- लवाण (दौसा) व टांकला (नागौर)।
(v) राजस्थान में सर्वाधिक दरी व गलीचे का कार्य जयपुर व अजमेर के क्षेत्रों में होता हैं। जयपुर का गलीचा उद्योग प्रसिद्ध है।
(vi) जालौर का लेटा गाँव व गुढ़ा बालोतान गाँव ‘खेसला उद्योग’ के लिए राज्यभर में प्रसिद्ध है।
(vii) नमदा उद्योग :- टोंक एवं बीकानेर में।
– बातिक :- कपड़े की परत को मोम से ढ़क कर उस पर चित्र बनाना बातिक कहलाता है। बातिक कला का उद्भव दक्षिण भारत में हुआ। खण्डेला (सीकर) बातिक कला के लिए प्रसिद्ध है। आर. बी. रायजादा बातिक कला के सिद्धहस्त कलाकार माने जाते है। उमेशचन्द्र शर्मा का सम्बन्ध भी बातिक कला से ही है।
– सूंठ की साड़ियों के लिए प्रसिद्ध :- जोबनेर (जयपुर)।
– हुरमुचो :- कढ़ाई की विशेष शैली। बाड़मेर में प्रचलित। हुरमुचो कशीदा को आधुनिक भारत में बचाये रखने का श्रेय सिंधी समुदाय को है।
– लेटा, मांगरोल एवं सालावास :- कपड़े की मदों की बुनाई हेतु प्रसिद्ध स्थल।
- जेवर शिल्प / धातु बर्तन शिल्प / शस्त्र शिल्प :-
सुनार :- सोने एवं चाँदी के जेवर बनाने का काम करने वाले कारीगर।
जड़िया :- नगों की जड़ाई करने वाले कारीगर।