राजस्थान छीटों की छपाई के लिए सदा प्रसिद्ध रहा है। छीटों का उपयोग स्त्रियों के ओढ़ने और पहनने दोनों प्रकार के वस्त्रों में होता है। छीटों के मुख्यत: दो भेद हैं : छपकली और नानण। विवाहोत्सवों में वधू के लिए ‘धांसी की साड़ी’ काम में लाई जाती है। लहरदार छपाई के लूगड़ों को ‘लेहरिया’ कहते हैं। लेहरियों के मुख्य रंग के मध्य छपाई की रेखाएँ ‘उकेळी’ कहलाती है। मोठड़ा का लेहरिया बंधाई के लिए राजस्थान के जोधपुर और उदयपुर शहर प्रसिद्ध हैं।
फाँटा/फेंटा :- गुर्जरों और मीणों के सिर पर बाँधा जाने वाला साफा।
(A) चारसा :- बच्चों के ओढ़ने का वस्त्र।
(B) सोड पतरणे :- उपस्तरण।
(C) सावानी :- कृषकों के अंगोछे।
बयाना अपने नील उत्पादन के लिए जाना जाता था।
(ख) सिलाई :- कपड़े को काट-छाँटकर वस्त्र बनाने वाला कारीगर ‘दरजी’ कहलाता है।
– मेवाड़ में कोट के अन्दर रुई लगाने की प्रक्रिया ‘तगाई’ कहलाती है।
– विभिन्न रंगों के कपड़ों को विविध डिजाइनों में काटकर कपड़े पर सिलाई की जाती है, जो पेचवर्क कहलाता है। पेचवर्क शेखावटी का प्रसिद्ध है।
कढ़ाई :- सूती या रेशमी कपड़े पर बादले से छोटी-छोटी बिंदकी की कढ़ाई मुकेश कहलाती है। राजस्थान में सुनहरे धागों से जो कढ़ाई का कार्य किया जाता है उसे ‘जरदोजी’ का कार्य कहा जाता है।
भरत, सूफ, हुरम जी, आरी आदि शब्द कढ़ाई व पेचवर्क से संबंधित हैं।
काँच कशीदाकारी के लिए ‘रमा देवी’ को राज्य स्तरीय सिद्धहस्त शिल्पी पुरस्कार 1989-90 दिया गया। चौहटन (बाड़मेर) में काँच कशीदाकारी का कारोबार सर्वाधिक हैं। राजस्थान में रेस्तिछमाई के ओढ़ने पर जरीभांत की कशीदाकारी जैसलमेर में होती है।
गोटा :- सोने व चाँदी के परतदार तारों से वस्त्रों पर जो कढ़ाई का काम लिया जाता है उसे ‘गोटा’ कहते हैं। कम चौड़ाई वाले गोटे को लप्पी कहते है। खजूर की पत्तियों वाले अलंकरण युक्त गोटा को ‘लहर गोटा’ कहते हैं।
गोटे का काम जयपुर व बातिक का काम खण्डेला में होता है।
गोटे के प्रमुख प्रकार :- लप्पा, लप्पी, किरण, बांकड़ी, गोखरू, बिजिया, नक्शी आदि।
जयपुर का गुलाल गोटा देशभर में प्रसिद्ध है। जयपुर का गुलाल गोटा लाख से निर्मित है।
(ग) रंगाई :- वस्त्रों की रंगाई का काम करने वाले मुसलमान कारीगर रंगरेज कहलाते हैं। सीवन खाना, रंग खाना, छापाखाना सवाई जयसिंह द्वारा संस्थापित कारखाने हैं जो वस्त्रों की सिलाई, रंगाई एवं छपाई से सम्बन्धित थे।
रंगाई के प्रमुख प्रकार :- पोमचा, बन्धेज, लहरियां, चुनरी, फेंटया, छींट आदि।
बन्धेज :- कपड़े पर रंग चढ़ाने की कला।
चढ़वा/बंधारा :- बंधाई का काम करने वाले कारीगर।
बंधेज का सर्वप्रथम उल्लेख :- हर्षचरित्र में (बाणभट्ट द्वारा लिखित)।
बाँधणूँ के प्रकार :- डब्बीदार, बेड़दार, चकदार, मोठड़ा, चूनड़ और लेहर्या।
जयपुर का बन्धेज अधिक प्रसिद्ध है। जरी के काम के लिए जयपुर विश्व प्रसिद्ध है।
– राज्य में बन्धेज की सबसे बड़ी मंडी जोधपुर में है तो बन्धेज का सर्वाधिक काम सुजानगढ़ (चूरू) में होता है।
– ऐसा माना जाता है कि बन्धेज कला मुल्तान से मारवाड़ में लाई गई थी।
– बन्धेज कार्य के लिए तैय्यब खान (जोधपुर) को पद्मश्री से सम्मानित किया जा चुका है।
– बन्धेज कला की नींव सीकर के फूल भाटी व बाघ भाटी नामक दो भाईयों ने रखी।
पोमचा :- स्त्रियों के ओढ़ने का वस्त्र।
प्रकार :- 1. कोड़ी 2. रेणशाही 3. लीला 4. सावली
पोमचा का तात्पर्य :- कमल फूल के अभिप्राय युक्त ओढ़नी। राज्य में पोमचा वंश वृद्धि का प्रतीक माना जाता है। पोमचा बच्चे के जन्म पर नवजात शिशु की माँ के लिए पीहर पक्ष की ओर से आता है।