राजस्थान सामान्य ज्ञान : रीति-रिवाज व प्रथाएँ

रीति-रिवाज व प्रथाएँ

– भारत के अन्य प्रदेशों से आकर यहां बसने वाले लोगों के अतिरिक्त यहां की सभी जातियों के रीति-रिवाज मूलतः वैदिक परम्पराओं से संचालित होते आये हैं।

– यहां तक कि मुसलमानों तथा भील, मीणा, डामोर, गरासिया, सांसी इत्यादि आदिम जातियां भी हिन्दुओं के रूढ़िगत रीति-रिवाजों से अप्रभावित नहीं हैं।

– राजस्थान के हर प्रसंग के लिये निश्चित रिवाजों में सरसता और उपयोगिता है, वह इसके सामाजिक जीवन की उच्च भावना की द्योतक है।

– राजस्थान के रीति-रिवाजों की सबसे बड़ी विशेषता उनका सादा व सरल होना है।

– सामन्ती व्यवस्था होने से राजस्थान के रीति-रिवाजों पर भी इनकी छाप रही है। इसी व्यवस्था के प्रभाव से यहां बाल-विवाह, वृद्ध विवाह व अनमेल विवाह का भी प्रचलन रहा है। राजपूतों में कन्या के साथ डावरियाँ भी दहेज में दिये जाने की परम्परा रही है। परन्तु अब प्रायः यह समाप्त हो गई है।

– मेहन्दी राजस्थान की नारियों की हथेली का विशेष श्रृंगार है।

सोलह संस्कार

– मनुष्य शरीर को स्वस्थ तथा दीर्घायु और मन को शुद्ध और अच्छे संस्कारों वाला बनाने के लिए गर्भाधान से लेकर अंत्येष्टि तक निम्न सोलह संस्कार अनिवार्य माने गए हैं-

  1. गर्भाधान-गर्भाधान के पूर्व उचित काल और आवश्यक धार्मिक क्रियाएं। हिन्दुओं का प्रथम संस्कार। इस संस्कार को मेवाड़ क्षेत्र में बदूरात प्रथा के नाम से भी जाना जाता है।
  2. पुंसवन-गर्भ में स्थित शिशु को पुत्र का रूप देने के लिए देवताओं की स्तुति कर पुत्र प्राप्ति की याचना करना पुंसवन संस्कार कहलाता है।
  3. सीमन्तोन्नयन-गर्भवती स्त्री को अमंगलकारी शक्तियों से बचाने के लिए किया गया संस्कार। याज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार यह संस्कार गर्भधारण के छठे से आठवें मास के मध्य तक किया जा सकता है। सीमंतोनयन संस्कार की परम्परा मारवाड़ में अगरणी नाम से प्रचलित थी। यह संस्कार खोळ भराई, साधुपुराना, चौक पुराना, अठमासे की गोद भरना आदि नामों से जाना जाता हैं।
  4. जातकर्म-बालक के जन्म पर किया जाने वाला संस्कार।
  5. नामकरण-शिशु का नाम रखने के लिए जन्म के 10वें या 11वें दिन किया जाने वाला संस्कार।
  6. निष्क्रमण-जन्मके चौथे मास में बालक को पहली बार घर से निकालकर सूर्य और चन्द्र दर्शन कराना।
  7. अन्नाप्राशन-जन्म के छठे मास में बालक को पहली बार अन्न का आहार देने की क्रिया। इसे देशाटन संस्कार भी कहा जाता है।
  8. चूड़ाकर्म या जडूला-शिशु के पहले या तीसरे वर्ष में सिर के बाल पहली बार मुण्डवाने पर किया जाने वाला संस्कार।
  9. कर्णवेध-शिशु के तीसरे एवं पांचवें वर्ष में किया जाने वाला संस्कार, जिसमें शिशु के कान बींधे जाते हैं।
  10. विद्यारम्भ-देवताओं की स्तुति कर गुरु के समीप बैठकर अक्षर ज्ञान कराने हेतु किया जाने वाला संस्कार।
  11. उपनयन-इस संस्कार द्वारा बालक को शिक्षा के लिए गुरु के पास ले जाया जाता था। ब्रह्मचर्याश्रम इसी संस्कार से प्रारम्भ होता था। इसे ‘यज्ञोपवीत संस्कार‘ भी कहते थे। ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों को ही उपनयन का अधिकार था। इस दिन बालक जनेऊ धारण करता है। जनेऊ धारण करने का उत्तम दिन रक्षाबन्धन को माना जाता है।
  12. वेदारम्भ-वेदों के पठन-पाठन का अधिकार लेने हेतु किया गया संस्कार।
  13. केशान्त या गोदान-सामान्यतः 16 वर्ष की आयु में किया जाने वाला संस्कार, जिसमें ब्रह्मचारी को अपने बाल कटवाने पड़ते थे।
  14. समावर्तन या दीक्षान्त संस्कार-शिक्षा समाप्ति पर किया जाने वाला संस्कार, जिसमें विद्यार्थी अपने आचार्य को गुरुदक्षिणा देकर उसका आशीर्वाद ग्रहण करता था तथा स्नान करके घर लौटता था। स्नान के कारण ही ब्रह्मचारी को ‘स्नातक‘ कहा जाता था।

– देराळी :- समावर्तन संस्कार का बिगड़ा हुआ स्वरूप।

  1. विवाह संस्कार-गृहस्थाश्रम में प्रवेश के अवसर पर किया जाने वाला संस्कार।
  2. अंत्येष्टि-यह मृत्यु पर किया जाने वाला दाह संस्कार। मानव जीवन का अंतिम संस्कार।

राजस्थान के रीति-रिवाज तीन भागों में विभक्त किये जा सकते हैं –

जन्म संबंधी रीति-रिवाज

गर्भाधान- नव विवाहित स्त्री के गर्भवती होने की जानकारी मिलते ही उत्सवों का आयोजन होता है। इस अवसर पर महिलाओं द्वारा मंगल गीत गाये जाते हैं।

पंचमासी- यह एक प्रकार से पुंसवन संस्कार है जिसके अन्तर्गत जब गर्भवती महिला का 5 माह का गर्भधारण का समय पूरा हो जाता था, तब गर्भ की सुरक्षा हेतु देवी-देवताओं की पूजा की जाती थी।

– आठवां पूजन- गर्भवती स्त्री के गर्भ को जब सात मास पूर्ण हो जाते हैं तो आठवें मास में आठवां पूजन महोत्सव मनाया जाता है। इस अवसर पर देवताओं का पूजन करके उनसे मनौतियां मांगी जाती है। इस अवसर पर प्रीतिभोज का भी आयोजन किया जाता है।

आगरणी- गर्भ धारण के आठ माह पश्चात् इसका आयोजन किया जाता था। आगरणी पर गर्भवती महिला की माता महिला के लिए घाट (ओढ़नी) व मिठाई (विशेषकर घेवर) भेजती थी।

जन्म- यदि लड़के का जन्म होता है तो घर की बड़ी औरत कांसे की थाली बजाती है, परन्तु लड़की के जन्म पर सूप बजाया जाता है। जन्म के बाद परिवार की वृद्ध महिला बच्चे को जन्म-घुट्टी पिलाती है।

जामणा- पुत्र जन्म पर नाई बालक के पगल्ये (सफेद वस्त्र पर हल्दी से अंकित पद चिन्ह) लेकर उसके ननिहाल जाता है। तब उसके नाना या मामा उपहार स्वरूप वस्त्राभूषण, मिठाई लेकर आते हैं, जिसे ‘जामणा‘ कहा जाता है।

सुआ- इस संस्कार के अन्तर्गत बच्चे के जन्म के बाद सारे घर की शुद्धि की जाती थी। जब तक घर की शुद्धि नहीं हो जाती तब तक बाहर का कोई भी आदमी घर का पानी नहीं पीता था। जच्चा के घर को सुआ कहते हैं।

– न्हावण / न्हाण :- प्रसूता का प्रथम स्नान व उस दिन का संस्कार।

– सतवाड़ौ :- प्रसव के सातवें दिन का प्रसूता का स्नान या संस्कार।

आख्या- बच्चे के जन्म के आठवें दिन बहिनें आख्या करती हैं तथा सांखियाँ (मांगलिक चिह्न)  भेंट करती हैं।

– दसोटण :- जोधपुर राजघराने में पुत्र जन्म के बाद 10वें दिन अशौच शुद्धि के अवसर पर किया जाने वाला समारोह।

सुहावड़- मारवाड़ की परम्परा अनुसार प्रसूता को सौंठ, अजवाईन, घी-खांड़ के मिश्रण के लड्डू बना कर खिलाये जाते हैं, इसे सुहावड़ कहा जाता है।

पनघट पूजन- बच्चे के जन्म के कुछ दिनों उपरान्त कुंआ पूजन की रस्म मनाई जाती है। इस प्रथा को कुआँ पूजन’ या ‘जलवा पूजन भी कहते हैं। इस अवसर पर घर, परिवार और मौहल्ले की स्त्रियां बच्चे की मां को लेकर देवी-देवताओं के गीत गाती हुई कुएँ पर जाती है। कुएँ पर जल पूजा भी की जाती है।

– ढूँढ :- बच्चे के जन्म के बाद प्रथम होली पर ननिहाल पक्ष की ओर से उपहार, कपड़े, मिठाई व फूल भेजे जाते हैं।

गोद लेना- जब किसी दम्पत्ति के कोई बच्चा नहीं होता है तो वह अपने परिवार से या अपने सम्बन्धी के बच्चे को अपना लेता है। इसे गोद लेना कहते हैं। इस रस्म का मुख्य उद्देश्य वंश को चलाना होता है। राजस्थानी परम्परा के अनुसार गोद लिये हुये बच्चे को स्वयं के बच्चे के बराबर हक मिलता है।

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