- ढोल
- यह एक बड़े बेलन के आकार का वाद्य है, जिसे लोहे की सीधी और चपटी परतों को आपस में जोड़कर बजाया जाता है।
- इस वाद्य पर बकरे की खाल मढ़ी रहती है। इसके साथ थाली बजाई जाती है।
- यह अवनद्ध वाद्यों में सर्वाधिक व्यापकता वाला वाद्य है।
- इसे बजाने हेतु हाथ तथा लकड़ी के डंडे का प्रयोग किया जाता है।
- मारवाड़ में मांगलिक अवसरों पर इसे बजाया जाता है।
- जालोर का ढोल नृत्य प्रसिद्ध है।
- डेरू
- डमरू से कुछ बड़ा पर ढोल से छोटा यह अवनद्ध वाद्य समुह का एक विशेष वाद्य है।
- इसकी आकृति डमरू जैसी लगती है, इसके दोनों सिरे के मुँह चमड़े से मढ़े जाते हैं।
- इसे बजाने हेतु पतली छोटी लकड़ी, जिसका एक सिरा कुछ मुड़ा हो उसे काममें लिया जाता है।
- माताजी, गोगाजी एवं भैरूजी के भोपे, इन लोक देवताओं के भजन, पवाड़े आदि गाते समय इस वाद्य को बजाते है।
- भीलों की मादल
- राजस्थान के लोक वाद्यों में अवनद्ध-वाद्य समूह में एक नाम हैं – ‘मादल’। इस वाद्य के दो रूपों का वर्णन किया गया है। (1) ‘भीलों की मादल’ (2) रावलों की मालद’। वाद्य एक ही है लेकिन बनावट में किंचित अन्तर होने के कारण दोनों को अलग-अलग मान कर अलग पहचान तथा अलग नाम दिये गये हैं। ऐसी स्थिति कतिपय अन्य वाद्यों में भी पाई जाती है। यथा-‘चंग’ व ‘ढफ’, ‘नगाड़ा’ तथा ‘बंब’ इत्यादि।
- यह मुख्यतः आदिवासियों का वाद्य है। इसलिये इसके नाम आदिवासी जातियों के नामों से वर्गीकृत हैं। यह सीधी खोल वाले ढोल वाद्यों के अन्तर्गत आता है। ‘भीलों की मादल’ का खोल मिट्टी का बना होता है, जो कुम्हारों द्वारा कुशलता से बनाया जाता है। खोल की बनावट बेलनाकार सीधी, छोटे, ढोल की तरह होती है। कुछ खोल ढाल-उतार, एक तरफ से कुछ चौड़े तथा दूसरी तरफ से कुछ संकरे मुंह वाले भी होते हैं।
- रावलों की मादल
- इस प्रदेश के चारणों के याचक रावल लोगों का प्रमुख वाद्य।
- इस ‘मादल’ का खोल गोपुच्छाकृत काठ से बनाया जाता है। यह ढोलकनुमा खोल वाला वाद्य है, पर इसका खोल ढोलक से बड़ा होता है। इसका एक मुख चौड़ा तथा दूसरा क्रमशः संकरा होता है। दोनों मुख चमड़े की पुड़ियों से मंढे जाते हैं। पुड़ियों की बनावट तबले की पुड़ियों जैसी दोहरी परत की होती है।
- रावल लोग रम्मत (लोक-नाट्य) व गायन के समय इसका वादन करते हैं। रावलों का प्रमुख वाद्य होने के कारण इसे ‘रावलों की मादल’ कहा जाता है।
- वृन्द वाद्य – गड़गड़ाटी
- यह एक वृन्द वाद्य (Orchestra) है, जिसमें मिट्टी के खोल वाली छोटी ढोलक, मिट्टी का कटोरा तथा कांसी की थाली तीन वाद्य होते हैं।
- इसकी ढोलक की खोल मिट्टी की बनी होती है। खोल की लम्बाई लगभग एक से सवा फुट की तथा गोलाई का व्यास करीब 10 इंच का होता है। इसके दोनों मुख चमड़े की झिल्लियों से मंढ दिये जाते हैं। पुड़ियों के गजरे नहीं बनाये जाते वरन् डोर को पुड़ियों में छेद कर कसा जाता है। छेद दूर-दूर होने से डोरी कुछ छितराई हुई लगती हे। डोरी में कड़ियां या गट्टे नहीं डाले जाते।
- दूसरा वाद्य मिट्टी का कटोरा होता है जिसके मुख पर चमड़े की झिल्ली मढ़ी जाती है। तीसरा वाद्य कांसी की थाली होती है। तीनों एक साथ बजाये जाते हैं जिसे ‘गड़गड़ाटी’ कहते हैं।
- यह हाड़ौती अंचल में प्रचलित ताल वाद्य (वृन्द वाद्य) है। इसका वादन प्रायः मांगलिक अवसरों पर किया जाता है।
- यद्यपि थाली घनवाद्य है किन्तु अन्य दोनों वाद्य अवनद्ध वाद्य होने के कारण इस वाद्य को अनवद्ध श्रेणी में माना गया है।
सुषिर (फूंक) वाद्य
- ये वाद्य वादक द्वारा मुँह से फूंक मारकर बजाये जाते है।
प्रमुख सुषिर वाद्य –
- बाँसुरी (बंसरी, बांसरी बांसुली, बंसी)
- यह वाद्य बांस की नलिका से निर्मित होने के कारण इस वाद्य का नाम बांसुरी या बंसरी पड़ा।
- शास्त्रीय संगीत के वर्गीकृत वाद्यों में इसका महत्वपूर्ण स्थान है।
- मुँह से बजाये जाने वाले भाग को तिरछी गोलाई में चंचुनुमा काटकर उसमें गुटका लगाकर मुँह को संकरा कर दिया जाता है।
- इस वाद्य पर पाँच से आठ तक छेद होते है।
- राजस्थान में पाँच छेद वाली बाँसुरी को ‘पावला’ कहा जाता है। छः छेद वाली ‘रूला’ कहलाती है।
- यह अत्यन्त प्राचीन वाद्य है। वैदिक साहित्य, ऋग्वेद उपनिषद, पुराणा आदि में इसका संदर्भ निरन्तर मिलता है।
- नाद उत्पन्न करने वाली होने के कारण इसे ‘नादी’ कहा गया है तथा बांस के कारण इसे ‘वंश’ व वेणु कहा गया है।
- सुरनई
- राजस्थान के लोक वाद्यों में कई रूपों में प्रचलित वाद्य ‘सुरनई’, शहनाई से मिलता-जुलता दो रीड का वाद्य है। इसका निर्माण शीशम, सागवान या टाली की लकड़ी की नलिका बनाकर किया जाता है। इसमें खजूर या ताड़ वृक्ष की पत्ती की रीड लगती है। इसका अगला भाग फाबेदार होने से देखने में यह बड़ी चिलम जैसी लगती है। इसकी लम्बाई करीब सवा फुट होती है। इसके पीछे वाले संकरे भाग में एक नलिका लगाई जाती है। रीड को इसी नलिका के साथ मजबूती से बांधा जाता है। रीड को होठों में दबाकर लगातार फूंकते हुए इसे बजाया जाता है। इसलिये इसे नकसासी वाद्य माना जाता है। इसके ऊपरी भाग में 6 छिद्र होते हैं और इसे शहनाई की तरह बजाया जाता है। बजाते समय रीड को पानी से थोड़ा-थोड़ा गीला किया जाता है।
- इसका वादन पूरे राजस्थान में प्रचलित है, लेकिन मुख्य रूप से इसे जोगी, भील, ढोली तथा जैसलमेर क्षेत्र के लंगा लोग बजाते हैं। इस वाद्य को विवाहादि प्रायः मांगलिक अवसरों पर नगाड़े व कमायचे की संगत में बजाया जाता है। इसे लक्का, नफीरी व टोटो नाम से भी इंगित किया जाता है।
- सतारा
- राजस्थान के लोक संगीत वाद्यों में, ‘सतारा’ सुषिर या फूंक वाद्य, दो बांसुरियों वाला युग्म साज है। यह वाद्य ‘अलगोजा’ से मिलता-जुलता वाद्य है, परन्तु उससे भिन्न है। इसकी बांसुरियां बांस की नहीं होती वरन् केर की लकड़ी से बनाई जाती है।
- बांसुरियां अगर बराबर लंबाई में रखी जाती है तो ‘पावाजोड़ी’ कहलाती है। छोटी बड़ी होने पर ‘डोढा-जोड़ी, कहा जाता है। इनमें प्रत्येक में छः छः छेद होते हैं। एक बांसुरी आधार स्वर तथा केवल श्रुति के लिये तथा दूसरी को स्वरात्मक रचना में बजाया जाता है। दोनों बांसुरियां साथ-साथ बजती हैं।