- खड़ताल
- ‘खड़ताल’ जोधपुर के पश्चिम में बाड़मेर-जैसलमेर के लंगा – मांगणियारों (वंशानुगत लोक कलाकार) के प्रमुख वाद्यों में से एक वाद्य है। रोहिड़ा या खैर की लकड़ी की, चार अंगुल चौड़ी व दस अंगुल लंबी-चिकनी चार पट्टियों के रूप में यह वाद्य होता है।
- इसे बजाने के लिये वादक अपने प्रत्येक हाथ में दो-दो पट्टियां, अंगुठे और अंगुलियों में, पकड़ लेता है तथा इनको परस्पर आघातित कर कलई से संचालित करते हुए ध्वनि निकालता है। यह लयात्मक घनवाद्य है। कुशल वादक इसके वादन में तबले के बोल भी निकाल सकता है।
- खड़ताल का जादूगर- सदीक खाँ ‘मिरासी’ (झांफली, बाड़मेर)
- घड़ा (मटका/घट)
- घरों में समान्यतया पानी भरकर रखने का मिट्टी का घड़ा या छोटे मुंह का मटका अपने आप में एक प्रभावशाली प्राकृतिक वाद्य माना जाता है।
- इसे गोद में रखकर एक हाथ की अंगुलियों से तबले की तरह तथा दूसरे हाथ की हल्की थाप से लयात्मक ध्वनि तथा गातें बजाई जाती है। कभी-कभी अंगुलियों में धातु की अंगुठियां भी पहनी जाती है।
- इसका मुख बहुत संकुचित होने के कारण अन्दर हवा का दबाव रहता है, इसलिये इसे बजाते समय बीच-बीच में हथेली से इसके मुंह पर बड़ी अद्भुत रीति से हल्का आघात किया जाता है जिससे ‘भम्-भम्’ की आकर्षक ध्वनि उत्पन्न होती है।
अवनद्ध वाद्य
- ऐसे वाद्यों को ‘चमड़े’ से मढ़कर बनाया जाता है, जिसे हाथ या डण्डे की सहायता से बजाया जाता है।
प्रमुख अवनद्ध वाद्य –
- चंग
- यह राजस्थान का अत्यन्त लोकप्रिय वाद्य है। फाल्गुन का महीना शुरू होते ही पूरे प्रदेश में मस्ती भरे गीतों के साथ इसे बजाया जाता है।
- लकड़ी का एक घेरा जिसे बकरे या भेड़ की खाल से मढ़ा जाता है इसे एक पतली डण्डी से बजाया जाता है।
- होली के दिनों में ‘चंग’ के साथ नाच गान करने वाली मंडलियों को ‘गैर’ कहा जाता है।
- होली के दिनों में गाये जाने वाले ‘फाग’ के साथ इस वाद्य को बजाया जाता है।
- घेरा
- ‘घेरा’ वाद्य इस प्रदेश के लोक संगीत के चंग, डफ आदि वाद्यों की श्रेणी का अन्य वाद्य है। इसका घेरा (वृत्त) चंग से बड़ा तथा ‘अष्ट कोणी वृत्ताकार’ होता है। यह लकड़ी की, आठ नौ इंच लम्बी तथा पांच छः इंच चौड़ी पट्टियों को परस्पर जोड़कर बनाया जाता है।
- यह मेवाड़ क्षेत्र के मुसलमानों का प्रमुख वाद्य है।
- ढफ/ढप/डफ
- यह वाद्य चंग से मिलती जुलती आकृति का, पर उससे बड़ा होता है। इसका घेरा लोहे की परत से बनाया जाता है। घेरे का व्यास करीब तीन फुट या इससे अधिक होता है।
- चंग की तरह इसके घेरे का एक मुख बकरे की खाल से मढ़ा जाता है। लेकिन चमड़े को घेरे पर चिपकाया नहीं जाता वरन् चमड़े की बद्दी (पतली डोरी) से घेरे के चारों ओर कसकर बांध दिया जाता है।
- कोटा झालावाड़ क्षेत्र के लोग इसे बजाकर, होली के दिनों में इसकी आवाज के साथ नाच गान करते हैं।
- खंजरी
- राजस्थान में खंजरी वाद्य का प्रचलन काल-बेलियों व जोगियों में अधिक हैं। लेकिन भजन-कीर्तन के आयोजनों में भी इसका प्रचलन आम तौर पर देखा जाता है।
- चंग या डफ की तरह इसका एक मुख चंदन-गौह या बकरी की खाल से मढ़ दिया जाता है। घेरे की गोलाई में लंबे-लंबे छेद कर उनमें, छोटी-छोटी, दो-दो, तीन-तीन, झांझें (पीतल की चकरियां) कील लगाकर पिरो दी जाती है। हाथ की थाप से वादन करते समय इन झांझों से छन्-छन् की मधुर झंकार होती रहती है।
- ट्रेन में अक्सर कलाकार को गीत के साथ ‘खंजरी’ बजाते देखा होगा।
- खाल से मंडित होने के कारण यह अवनद्ध वाद्य माना जाता है तथा झाझें या घुंघरु संलग्न कर देने के कारण इसमें घनवाद्य के लक्षण भी सम्मिलित हो गये हैं।
- नगाड़ा
- समान आकार के लोहे के दो कटोरीनुमा पात्रों का वाद्य, जिनके ऊपरी भाग पर भैंसे की खाल का मढ़ाव होता है।
- प्रसिद्ध नगाड़ा वादक रामाकिशन सोलंकी (पुष्कर)।
- दो डंडों से आघातित करने पर वादन होता है।
- वर्तमान काल में मंदिरों में आरती के समय एवं प्राचीन काल में राजा की सवारी के आगे बजाने का प्रचलन रहा है।
- बाड़मेर व शेखावाटी क्षेत्र में गैर तथा गींदड़ लोकनृत्यों के साथ भी बजाया जाता है।
- पुष्कर के रामाकिशन सोलंकी प्रसिद्ध नगाड़ा वादक थे।
- टामक/बंब/बम
- टामक वाद्य इस प्रदेश के लोक वाद्यों में सबसे बड़ा वाद्य है। यह अवनद्ध श्रेणी का भांड वाद्य है (Kettle Drum) जो एक बहुत बड़ा नगाड़ा होता है। इसका ढांचा लोहे की मोटी परतों को जोड़कर, बड़ी कड़ाही की तरह बनाया जाता है। इसके मुख का व्यास करीब चार फुट तथा गहराई भी चार फुट के करीब होती है। इसके पैंदे वाले भाग की गोलाई क्रमशः छोटी होने के कारण यह खड़े अण्डे की शक्ल में लगता है।
- इसके मुख पर, भैंस के मोटे चमड़े की (पतर) पुड़ी, गजरा (कुण्डल) बनाकर नगाड़े की तरह मढ़ी जाती है। पुड़ी को चमड़े की बद्धी (डोरी) से चारों ओर खींच कर बांधा जाता है।
- ताल वाद्यों में यह सबसे बड़ा वाद्य है। इसे तिपाही पर रखकर दो डंडों से आघातित कर बजाया जाता है। प्राचीन काल में इस वाद्य को दुर्ग की प्राचीर आदि पर रखकर या युद्ध स्थल में बजाया जाता था।
- वर्तमान में इसका वादन, अलवर, भरतपुर, सवाई-माधोपुर क्षेत्र में, बसंत पंचमी एवं होली के उत्सवों पर गूर्जर, जाट, अहीर आदि, पुरुष-महिलाओं के नृत्य-गायन के साथ किया जाता है। ढोलक, मंजीरा, चिमटा, झील आदि इसकी संगत में बजाये जाते हैं।
- इसे बंब और धौंसा भी कहा जाता है।