अन्य रीति-रिवाज
– नांगल- मकान निर्माण के बाद नवनिर्मित गृह के प्रवेश की रस्म नांगल कहलाती है।
– जनेऊ प्रथा- ब्राह्मण जाति में बच्चों के जनेऊ डालने की प्रथा है। इसे यज्ञोपवित भी कहा जाता है।
– कूकड़ी की रस्म – सांसी जनजाति की रस्म। इस रस्म के तहत विवाहोपरांत युवती को अपनी चारित्रिक पवित्रता की परीक्षा देनी होती है।
– धारी संस्कार – सहरिया जनजाति का मृत्यु से संबंधित संस्कार। यह संस्कार मृतक के मृत्यु के तीसरे दिन किया जाता है जिसमें एक कुण्डे के नीचे दीपक जलाया जाता है जहाँ किसी जानवर का पदचिह्न बनता है जिससे यह माना जाता है कि मृत व्यक्ति ने उसी रूप में जन्म लिया है।
– टीका-दौड़ – नए राजा के गद्दी पर बैठते ही पड़ौसी राज्य पर हमला करने की रस्म।
– हलाणौ – प्रथम प्रसव के बाद कन्या को दिया जाने वाला सामान व विदाई।
– धरेजा – अविवाहित व्यक्ति या विधुर द्वारा अविवाहित स्त्री या विधवा से आपसी सहमति से विवाह करना।
– ढींगोली – स्त्रियों का एक व्रत।
– पाती माँगना – इसमें धार्मिक परम्पराओं के तहत देवी-देवताओं से आशीर्वाद माँगा जाता है।
– हरवण गायन – वागड़ क्षेत्र (डूँगरपुर-बाँसवाड़ा) में मकर संक्रान्ति परगायी जाने वाली श्रवण कुमार की गाथा।
– सावळ – कीर जाति में खेत से सर्वप्रथम तोड़कर बहन-बेटी को दी जाने वाली वस्तु।
– पंचांग श्रवण – मकर संक्रान्ति पर हाड़ौती क्षेत्र में विशेषकर गागरौण व आस-पास के क्षेत्र में ज्योतिषों द्वारा अपने यजमानों को सुनाया जाने वाला पंचांग।
– पुरणाई – माँगलिक अवसरों पर गोबर आदि से आँगन लेपने की क्रिया।
– गाघराणौ :- पुनर्विवाह की प्रथा, विशेषकर देवर के साथ।
– ओजू (वजू) – नमाज पढ़ने से पूर्व शुद्धि के लिए हाथ-पाँव धोने की क्रिया।
– अंगवारौ – किसानों द्वारा पारस्परिक सहयोग से कृषि कार्य करने की प्रथा।
– देवरघट्टा – बड़े भाई की मृत्यु के पश्चात उसकी पत्नी का विवाह छोटे भाई के साथ कर दिया जाता है तो इसे देवरघट्टा विवाह कहते हैं।
– तागा करना – आत्महत्या के शरीर पर शस्त्र से घाव करना।
प्रमुख प्रथाएँ
– बाल विवाह- यह छोटी उम्र में ही विवाह कर देने की प्रथा है, जिसका प्रचलन निम्न जातियों में अधिक है। प्रतिवर्ष राजस्थान में अक्षय तृतीया पर हजारों बच्चे विवाह बंधन में बांध दिए जाते हैं। बाल विवाह का प्रचलन गुप्तकाल से माना जाता है। बाल विवाह का प्रथम लिखित प्रमाण बाणभट्ट की पुस्तक हर्षचरित्त से माना जाता है।
– आखातीज का सावा शादियों के लिये उत्तम माना जाता है। यह अबूझ सावा के रूप में प्रसिद्ध हैं।
– राजस्थान में सर्वप्रथम बाल विवाह पर रोक जोधपुर रियासत ने 1885 ई. में लगवाई।
– अजमेर के श्री हरविलास शारदा ने 1929 ई. में बाल विवाह निरोधक अधिनियम प्रस्तावित किया, जो ‘शारदा एक्ट‘ के नाम से प्रसिद्ध है। 1 अप्रैल, 1930 से यह अधिनियम समस्त देश में लागू हुआ। शारदा एक्ट में विवाह योग्य उम्र के लिए लड़के की आयु 18 वर्ष तथा लड़की की आयु 14 वर्ष तय की गई। इस अधिनियम से पूर्व ‘वाल्टर कृत राजपूत हितकारिणी सभा‘ के निर्णयानुसार जोधपुर राज्य के प्रधानमंत्री सर प्रतापसिंह ने सन् 1885 में बाल विवाह प्रतिबंधक कानून बनाया था। अब शारदा एक्ट को समाप्त कर नया अधिनियम-बाल विवाह निरोध अधिनियम लागू कर दिया गया है। बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम 2006 को 10 जनवरी 2007 से अधिसूचित किया गया। यह कानून 1 नवम्बर, 2007 से लागू हुआ। वर्तमान में लड़कों के लिए विवाह योग्य उम्र 21 वर्ष एवं लड़कियों के लिए 18 वर्ष निर्धारित की गई है।
– सती प्रथा- पति की मृत्यु हो जाने पर पत्नी द्वारा उसके शव के साथ चिता में जलकर मृत्यु को वरण करना ही सती प्रथा कहलाती थी। मध्यकाल में अपने सतीत्व व प्रतिष्ठा को सुरक्षित रखने हेतु यह प्रथा अधिक प्रचलन में आई। धीरे-धीरे इसने एक भयावह रूप धारण कर लिया तथा स्त्री की इच्छा के विपरीत परिवार की प्रतिष्ठा ओर मर्यादा बनाए रखने के लिए उसे जलती चिता में धकेला जाने लगा। राजस्थान में इस प्रथा का सर्वाधिक प्रचलन राजपूत जाति में था।
– राजस्थान में सर्वप्रथम 1822 ई. में बूंदी रियासत में विष्णुसिंह ने सतीप्रथा को गैर कानूनी घोषित किया गया। बाद में राजा राममोहन राय के प्रयत्नों से लार्ड विलियम बैंटिक ने 1829 ई. में सरकारी अध्यादेश से पहले बंगाल में तथा फिर पूरे भारत में इस प्रथा पर रोक लगाई। यह कानून बनने के बाद 1830 ई. में अलवर रियासत ने इस प्रथा पर सर्वप्रथम रोक लगाई। भारत में सती प्रथा का प्रथम उल्लेख गुप्त काल के एरण अभिलेख से मिलता है। राजस्थान में सती प्रथा का प्रथम प्रमाण घटियाला अभिलेख (जोधपुर) में मिला है जो 861 ई. का है। इस अभिलेख के अनुसार राणुका की मृत्यु पर उसकी पत्नी संपल देवी सती हुई थी। अकबर ने भी सती प्रथा को रोकने के प्रयास किए।
– राजस्थान में सन् 1987 के देवराला (सीकर) सती काण्ड, जिसमें रूपकंवर अपने पति श्रीमालसिंह शेखावत के पीछे सती हुई थी, के बाद सती निवारण अधिनियम पारित किया गया। जिसके तहत सती प्रथा को प्रोत्साहित करने वाले सभी मेले, कार्यक्रमों व साहित्य पर रोक लगा दी गई।
– सती प्रथा को ‘सहमरण‘, ‘सहगमन‘ या ‘अन्वारोहण‘ भी कहा जाता है।
– मोहम्मद तुगलक पहला शासक था, जिसने सती प्रथा पर रोक हेतु आदेश जारी किए थे।
– अनुमरण- पति की मृत्यु कहीं अन्यत्र होने व वहीं पर उसका दाह संस्कार कर दिए जाने पर उसके किसी चिन्ह के साथ अथवा बिना किसी चिन्ह के ही उसकी विधवा के चितारोहण को ‘अनुमरण‘ कहा जाता है। ऐसी सतियों को ‘महासती‘ भी कहा जाता है। मृतपुत्र के साथ भी स्त्रियां सती होती थी, जिन्हें ‘मां-सती‘ कहा जाता था।
– जौहर प्रथा- युद्ध में जीत की आशा समाप्त हो जाने पर शत्रु से अपने शील-सतीत्व की रक्षा करने हेतु वीरांगनाएं दुर्ग में प्रज्जवलित अग्निकुण्ड में कूदकर सामूहिक आत्मदहन कर लेती थी, जिसे ‘जौहर करना‘ कहा जाता था। राजस्थान में प्रथम जौहर 1301 ई. में रणथम्भौर दुर्ग में हम्मीरदेव की पत्नी रंगदेवी के नेतृत्व में हुआ। यह एक जल जौहर था।
– डावरिया- राजा महाराजा व जागीरदार पहले अपनी लड़की की शादी में दहेज के साथ कुछ कुंवारी कन्याएं भी देते थे, जिन्हें डावरिया कहा जाता था।
– केसरिया करना- राजपूत योद्धाओं द्वारा पराजय की स्थिति में पलायन करने या शत्रु के समक्ष आत्मसमर्पण करने की बजाय केसरिया वस्त्र धारण कर दुर्ग के द्वारा पर भूखे शेर की भांति शत्रु पर टूट पड़ना व उन्हें मौत के घाट उतारते हुए स्वयं भी वीर गति को प्राप्त हो जाना ‘केसरिया करना‘ कहा जाता था।
– समाधि प्रथा- इस प्रथा में कोई पुरुष या साधु महात्मा मृत्यु को वरण करने के उद्देश्य से जल समाधि (किसी तालाब में पानी में बैठकर अपनी जान दे देना) या भू-समाधि (जमीन में गड्ढ़ा खोदकर बैठ जाना व उसे मिट्टी से भर देना) ले लिया करते थे। यह कृत्य आत्महत्या के समान था लेकिन ऐसे पुरुषों को जनता बड़ी श्रद्धा से देखती थी और उनकी पूजा करती थी।
– सर्वप्रथम जयपुर के पॉलिटिकल एजेण्ट लुडलो के प्रयासों से सन् 1844 में जयपुर राज्य ने समाधि प्रथा को गैर कानूनी घोषित किया। इसे पूर्णरूपेण समाप्त करने के लिए सन् 1861 में एक नियम पारित किया गया।
– नाता- राजस्थान में नाता अथवा ‘पुनर्विवाह‘ की प्रथा भी है। इस प्रथा के अनुसार पत्नी अपने पति को छोड़कर किसी अन्य पुरुष के साथ विवाह कर सकती है। विधवा भी अपनी पसन्द के व्यक्ति के साथ रह सकती है। यह प्रथा आदिवासियों में अधिक प्रचलित है। पर्दा प्रथा का उदय गुप्तकाल में हुआ था।
– त्याग प्रथा- राजस्थान में राजपूत जाति में विवाह के अवसर पर चारण, भाट, ढोली इत्यादि लड़की वालों से मुंह मांगी दान-दक्षिणा प्राप्ति के लिए हठ करते थे, जिसे ‘त्याग‘ कहा जाता था। मध्यकालीन राजस्थान में यह त्याग स्वेच्छापूर्वक अपने पद व स्थिति के अनुसार दिया जाता था। लेकिन समय के साथ-साथ यह प्रथा बोझ बन गई और इसका भार उठाना असहनीय बन गया। त्याग की इस कुप्रथा के कारण भी प्रायः कन्या का वध कर दिया जाता था।
– सर्वप्रथम 1841 ई. में जोधपुर राज्य में ब्रिटिश अधिकारियों के सहयोग से नियम बनाकर ‘त्याग प्रथा‘ को सीमित करने का प्रयास किया गया। बाद में ‘वाल्टर कृत राजपूत हितकारिणी सभा‘ ने इस कुप्रथा को समाप्त करने का प्रयास किया।
– अहेड़ा का शिकार- राजपूताने में होली के दिन शिकार करने के रिवाज को अहेड़ा का शिकार कहा जाता था।