- कालबेलिया –
– जनसंख्या – 1,31,911
– निवास क्षेत्र – पाली, जोधपुर, राजसमंद, सिरोही, अजमेर, चित्तौड़, उदयपुर, राजसमन्द आदि।
– नृत्य एवं गायन में दक्ष।
– प्रमुख वाद्य – बीन एवं डफ।
– प्रमुख नृत्य – इंडोणी, शंकरिया, पणिहारी, बागड़िया आदि।
– गुलाबो – इस जनजाति की प्रसिद्ध नृत्यांगना, इन्होंने कालबेलिया नृत्य को अन्तर्राष्ट्रीय पहचान प्रदान की है।
– कालबेलिया को साँप पालक जाति माना जाता है।
- नट –
– जनसंख्या – 65894
– निवास क्षेत्र – अलवर, जोधपुर, जयपुर, पाली, टोंक, भीलवाड़ा, अजमेर आदि।
– करतब दिखाने में माहिर जाति।
– कठपुतली नृत्य में माहिर जाति।
अन्य आदिवासी जातियाँ –
– बागरी – खेतों की रखवाली कर अपना भरण-पोषण करने वाली जाति।
– कहार – पालकी उठाने एवं घरों में पानी भरने का कार्य कर अपना जीवनयापन करने वाली जाति।
– ओड़ – मिट्टी खोदने, पत्थरों को खोदने का कार्य एवं गधों पर मिट्टी लादकर ढोने वाली जाति।
– पिंजारा – रुई धुनकर (पिंजकर) रजाई-गद्दे भरने वाली जाति।
– गोयला – मिट्टी के बर्तन बनाने का कार्य कर जीवनयापन करने वाली एक मुस्लिम जाति।
– धाणका (धानका) :- राज्य की एक पिछड़ी अनुसूचित जनजाति।
जनजाति विकास कार्यक्रम
– बांसवाड़ा जिले में कुशलगढ़ में वर्ष 1956 में बहुउद्देशीय जनजातीय विकास खण्ड प्रारम्भ किया गया था।
– परिवर्तित क्षेत्र विकास कार्यक्रम – यह कार्यक्रम मीणा बहुल दक्षिणी व दक्षिणी पूर्वी जिलों में शुरू की गई थी।
– उद्देश्य – इस योजना का लक्ष्य जनजातियों के जीवन स्तर को ऊपर उठाना तथा बेरोजगारी को दूर करना। इस योजना में पेयजल, ग्रामीण गृह निर्माण, लघु सिंचाई व चिकित्सा आदि योजनाओं को लागू किया गया हैं।
– जनजाति उपयोजना क्षेत्र – इस योजना को पाँचवी पंचवर्षीय योजना के दौरान वर्ष 1974-75 में लागू किया गया था। इसका योजना द्वारा शिक्षा, चिकित्सा, जलापूर्ति, रोजगार, पेयजल आदि सुविधाएँ प्रदान की गई हैं। इस योजना द्वारा आदिवासियों को चिकित्सा के क्षेत्र में प्रशिक्षण प्रदान किया गया हैं।
स्वच्छ परियोजना –
– UNICEF के सहयोग से वर्ष 1985 में आदिवासी क्षेत्रों में शुरू की गई नारू उन्मुलन परियोजना हैं।
– इस योजना में स्वच्छता एवं पेयजल संसाधनों में वृद्धि के प्रयास किए गए हैं।
– सन् 1996 तक यह परियोजना सीडा (स्वीडन) एवं यूनिसेफ की सहायता से चलाई गई थी। सन् 1996 के बाद राज्य सरकार द्वारा एक स्वयंसेवी संस्था ‘स्वच्छ’ (गैर सरकारी) के रूप में पंजीकृत कराकर चलाया जा रहा है।
– इस परियोजना के तहत निम्न योजनाएँ संचालित हैं : 1. मॉ-बाड़ी केन्द्रों का संचालन
- कथौड़ी विकास कार्यक्रम
- खेल छात्रावास सुविधा
- जलोत्थान सिंचाई परियोजना
- आवास निर्माण
- सामुदायिक भवन निर्माण
अनुसूचित जनजाति स्वरोजगार योजना –
– वर्ष 2001-02 में प्रारम्भ।
– राजस संघ द्वारा संचालित।
– इस योजना में 18 वर्ष से अधिक आयु के राजस्थान के अनुसूचित जनजाति के बेरोजगार व्यक्तियों को रोजगार हेतु बैंकों से ऋण दिलवाकर आर्थिक सहायता प्रदान की जाती हैं।
– विस्तार – पाँच जिले (उदयपुर, डूँगरपुर, बाँसवाड़ा, प्रतापगढ़ एवं सिरोही)।
बिखरी जनजाति विकास कार्यक्रम –
– बांसवाड़ा व डूंगरपुर के अलावा राज्य के सम्पूर्ण भू-भाग पर आदिवासियों की बिखरी हुई जनसंख्या निवास करती हैं।
– इस योजना का लक्ष्य बिखरी हुई आदिवासी जनजातियों को एकजुट करना हैं।
एकलव्य योजना –
– इस योजना का लक्ष्य आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा से वंचित बालकों के विकास हेतु छात्रावास एवं स्वास्थ्य केन्द्र की स्थापना करना हैं।
– रोजगार कार्यक्रम – इस योजना का लक्ष्य आदिवासियो को रोजगार के अतिरिक्त अवसर प्रदान करना हैं।
– रूख भायला कार्यक्रम – इस योजना का उद्देश्य आदिवासी क्षेत्र में सामाजिक वानिकी को बढ़ावा देना तथा पेड़ों की अवैध कटाई को रोकना हैं।
– रूख भायला कार्यक्रम के अन्तर्गत 500 चयनित स्वयंसेवकों को 300 रुपये प्रतिमाह भत्ता दिया जाता है।
– क्रियान्विति :- भारत विकास परिषद द्वारा।
जनजातीय क्षेत्रीय विकास – प्रमुख संस्थाएँ –
– माणिक्यलाल वर्मा आदिम जाति शोध एवं प्रशिक्षण संस्थान – जनजाति विकास के लिए सन् 1964 में स्थापित इस संस्थान का उद्देश्य जनजातियों के सामाजिक, सांस्कृतिक एवं जीवन स्तर में सुधार करना हैं। यह संस्थान उदयपुर में है।
– वनवासी कल्याण परिषद् – उदयपुर में स्थित इस संस्थान द्वारा संचालित ‘वनवासी को गले लगाओ’ अभियान प्रारम्भ किया गया हैं।
– राजस्थान जनजातीय क्षेत्रीय विकास सहकारी संघ (राजस संघ) – इस संस्थान का उद्देश्य आदिवासियों को व्यापारी वर्ग के शोषण से मुक्त करना तथा सहकारी संगठनों के माध्यम से इनकी निर्धनता को दूर करना। इस संस्थान की स्थापना 27 मार्च 1976 को की गई थी। इसका प्रधान कार्यालय प्रताप नगर (उदयपुर) में है।
अन्य महत्वपूर्ण योजनाएँ
जनजाति उपयोजना क्षेत्र :- 1974 में लागू।
6 जिले शामिल :- बाँसवाड़ा, डूंगरपुर, उदयपुर, राजसमन्द, चित्तौड़गढ़ व आबूरोड (सिरोही) की 23 पंचायत समितियाँ शामिल जिसमें 4409 गाँव आबाद हैं।
– परिवर्तित क्षेत्र विकास उपागम (MADA) :-
– 1978-79 ई. में अपनाया गया।
– राज्य के 18 जिलों के 44 लघु माडा कलस्टर सम्मिलित किये गये।
– जनजाति क्षेत्रीय विकास विभाग की स्थापना :- 1975 में उदयपुर में।
– सहरिया विकास कार्यक्रम :- 1977-78 में शुरू।
– इस कार्यक्रम में कृषि, लघु-सिंचाई, पशुपालन, वानिकी, शिक्षा, पेयजल, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य, पुनर्वास सहायता आदि पर व्यय किया जाता है। यह कार्यक्रम बारां जिले की किशनगंज एवं शाहबाद तहसीलों में संचालित किया जा रहा है।
– बिखरी जनजाति विकास कार्यक्रम :- 1979 में शुरू। जनजाति क्षेत्र विकास विभाग (TADA) द्वारा संचालन
– अनुसूचित जाति विकास सहकारी निगम की स्थापना :- मार्च 1980 में निगम पैकेज ऑफ प्रोग्राम, स्काईट योजना, यार्न योजना, बुनकर शेड योजना के माध्यम से अनुसूचित जनजाति के लोगों को स्वावलम्बी बनाने का प्रयास कर रहा है।
अन्य तथ्य :-
– राष्ट्रीय आदिवासी भील सम्मेलन – जून 2010 में उदयपुर में आयोजित।
– आदिवासी बलिदान दिवस – 17 नवम्बर (यह दिवस मानगढ़ धाम पर 17 नवम्बर, 1913 को हुए भीषण हत्याकाण्ड की स्मृति में मनाया जाता है।)
– जनजातीय तीरंदाजी अकादमी – खेलगांव (उदयपुर) में।
– अनुसूचित जनजाति परामर्शदात्री परिषद – 27 अगस्त, 2010 को गठित। इस परिषद का अध्यक्ष मुख्यमंत्री होता है।
– अनुसूचित जनजाति एवं परम्परागत वनवासी (वनाधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 – 31 दिसम्बर, 2007 को लागू।
– चोखला – एक विशेष क्षेत्र के आदिवासी गाँवों का समूह।
– चीराबावशी – राज्य के आदिवासी समाज में मृतात्मा का आह्वान करने की परम्परा।
– जसमां ओडण – राजस्थान के आदिवासी क्षेत्रों में प्रचलित प्रेमाख्यान जिसमें ओड जनजाति की स्त्री ‘जसमां ओडण’ एवं ‘राव खांगार’ के प्रेमाख्यान का वर्णन है।
– हलमा/हीड़ा/हाँड़ा – जनजाति समुदायों में सामुदायिक सहयोग की परम्परा।
– वार – जनजाति समुदाय में सामूहिक सुरक्षा की प्रतीक मानी जाने वाली परम्परा। इसमें ‘मारुढोल’ के द्वारा लोगों तक संकट का संदेश पहुँचाया जाता है।
– भराड़ी – राजस्थान के दक्षिणांचल में भीली जीवन में व्याप्त वैवाहिक भित्ति चित्रण की लोकदेवी।
– लीला-मोरिया संस्कार – आदिवासियों में प्रचलित संस्कार। इस संस्कार में विवाह के अवसर पर दूल्हे के घर पर दूल्हे को वालर बाँधकर खाट पर बैठाकर उसके चारों ओर घूमते हुए नृत्य किया जाता है।
– लोकाई/कांदिया – आदिवासियों में मृत्यु के अवसर पर दिया जाने वाला भोज।
– ‘भांदरिया’ नामक आभूषण जनजातियों के हर स्त्री-पुरुष के गले में पहना जाता है। यह आभूषण गले की हंसली एवं काले धागे में पिरोया जाता है।
– मायस – नातरा करने वाले पुरुष द्वारा नातरा करने वाली स्त्री के पीहर पक्ष को दी जाने वाली सामग्री।
– नातरा – आदिवासियों में प्रचलित विधवा पुनर्विवाह की प्रथा।
– छेड़ा फाड़ना – तलाक की एक प्रथा।