राजस्थान सामान्य ज्ञान : राजस्थानी हस्तकला

 

 

(क) मीनाकारी :- सोना व चाँदी के आभूषणों व कलात्मक वस्तुओं पर मीना चढ़ाने की कला मीनाकारी कहलाती है। मीनाकारी में मुख्यत: लाल व हरे रंग का प्रयोग किया जाता है। ‘मीनाकारी’ की कारीगरी आमेर के राजा मानसिंह प्रथम लाहौर से जयपुर लाये थे। लाहौर के सिक्खों ने यह कला फारस के मुगलों से सीखी।

प्रमुख मीनाकार :- कांशीराम, कैलाशचन्द्र, हरीसिंह, अमरसिंह, किशनसिंह, शोभासिंह आदि।

मीनाकारी का जादूगर :- कुदरतसिंह (जयपुर)। सन् 1988 ई. में ‘पद्‌‌मश्री’ से सम्मानित।

कागज जैसे पतले पतरे पर मीनाकारी :- बीकानेर

चाँदी पर मीनाकारी :- नाथद्वारा (राजसमन्द)

पीतल पर मीनाकारी :- जयपुर।

ताँबे पर मीनाकारी :- भीलवाड़ा।

सोने पर मीनाकारी :- प्रतापगढ़।

काँच पर विभिन्न रंगों से बहुरंगी मीनाकारी :- रैतवाली क्षेत्र (कोटा)।

(ख) थेवा कला :- काँच की वस्तुओं पर सोने का सूक्ष्म व कलात्मक चित्रांकन। इस कला में हरा रंग प्रयुक्त होता है। प्रतापगढ़ का राजसोनी परिवार थेवा कला के लिए प्रसिद्ध है। यह कला दो शब्दों से मिलकर बनी है।

थेरना :- बार-बार स्वर्ण सीट को पीटते रहने की प्रक्रिया।

वादा :- स्वर्ण शीट पर विभिन्न आकृतियाँ उकेरने के लिए उपयोगी चाँदी के रिंग की फ्रेम।

इस प्रकार स्थानीय भाषा में उच्चारित ‘थेरनावादा’ से मिलकर ‘थेवा’ शब्द बना।

इस कला में रगीन बेल्जियम काँच का प्रयोग किया जाता है। इस कला का आविष्कार लगभग 16वीं सदी में प्रतापगढ़ रियासत के राजा सावंतसिंह के समय में हुआ। नाथूजी सोनी को थेवा कला का जनक माना जाता है।

थेवा कला के प्रसिद्ध कलाकार :- रामप्रसाद राजसोनी, बेणीराम राजसोनी, रामविलास राजसोनी, जगदीश राजसोनी, महेश राजसोनी एवं गिरिश कुमार।

– थेवा कला का नाम ‘इनसाइक्लोपीडिया ऑफ ब्रिटेनिका’ में भी अंकित है।

– हैदर अली ने अपनी भारत यात्रा के वृतान्त में थेवा कला की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है।

– जस्टिन वर्की को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर थेवा कला को बढ़ावा देने के लिए राजीव गाँधी राष्ट्रीय सम्मान 2009 से नवाजा गया।

(ग) तबक :- चाँदी के तारों को हिरण की खाल की कई परतों में रखकर कई घण्टों तक पीटा जाता है। इसके फलस्वरूप बनने वाले पते तबक/वर्क कहलाता है।

पन्नीगर :- तबक का कार्य करने वाले कारीगर।

जयपुर का पन्नीगरान मोहल्ला तबक या वर्क कार्य के लिए देश-विदेश में प्रसिद्ध है।

कुंदन कला :- सोने के आभूषणों में कीमती पत्थरों को जोड़ने की कला। राजस्थान में कुंदन के काम के लिए जयपुर जिला सर्वाधिक प्रसिद्ध है।

कोफ्तगिरी :- फौलाद की बनी हुई वस्तुओं पर सोने-पीतल की / के पतले तारों से की जाने वाली जड़ाई कोफ्तगिरी कहलाती है। यह कला मूल रूप से दमिश्क की है। राज्य के जयपुर एवं अलवर जिले इस कला के लिए प्रसिद्ध हैं।

तहनिशां :- तहनिशां कला में किसी भी वस्तु पर डिजाइन को गहरा खोदकर उसमें पीतल का पतला तार भर दिया जाता है। राजस्थान में अलवर जिले की तलवार जाति एवं उदयपुर की सिकलीगर जाति इस कला के लिए सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं।

तारकशी :- चाँदी के बारीक तारों से विभिन्न आभूषण एवं कलात्मक वस्तुएँ बनाना तारकशी कहलाता है। तारकशी का कार्य नाथद्वारा में सर्वाधिक किया जाता है।

बादला :- पानी को ठंडा रखने के लिए जस्ते (जिंक) से निर्मित कलात्मक पानी की बाेतलें ‘बादला’ कहलाती हैं। जोधपुर के बादले सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। बादले का आविष्कार कुचामन के कुम्हारों ने किया था।

मुरादाबादी :- पीतल के बर्तनों पर खुदाई करके उस पर कलात्मक नक्काशी का कार्य मुरादाबादी कहलाता है। प्रमुख केन्द्र :- जयपुर व अलवर।

कलईगिरी :- तांबा, पीतल आदि धातुओं के बर्तनों पर की जाने वाली चमक कलई कहलाती है और कलई करने वाला कारीगर ‘कलईगर’ कहलाता है।

आरण :- धातुएँ गलाने और बर्तन ढालने के लिए प्रयुक्त होने वाले चूल्हा भट्‌टी।

भरत / भर्त :- पीतल, ताँबा या अन्य धातुओं की ढ़लाई का काम। दौसा जिले की महवा तहसील का बालाहेड़ी गाँव पीतल के ठप्पेदार अनूठे बर्तनों के लिए प्रसिद्ध है।

– पीलसोद :- मन्दिरों में प्रयुक्त होने वाला दीप स्तम्भ। यह पीतल का बना होता है।

– पहुना (चित्तौड़गढ़) :- लौह उपकरण उद्योग के लिए प्रसिद्ध।

– बाँसवाड़ा जिले का चंदूजी का गढ़ा तथा डूंगरपुर का बोडीगामा तीर-कमान के लिए प्रसिद्ध है।

– पोकरण अपने कलात्मक बतनों के लिए जाना जाता है।

– सोमाड़ा (दौसा) के काँसे-पीतल के हुके सम्पूर्ण राजस्थान में प्रसिद्ध है।

– सिकलीगर :- हथियार बनाने, उन्हें तीक्ष्ण करने और साफ करके चमकाने का काम करने वाला कारीगर।

– भोगलियां / ठेरणा :- दो गाँठ वाली तलवार।

– कुलाबो :- मूठ लगी खमदार पत्ती वाली तलवार।

– अलवर तथा सिरोही में तलवारें बनाने का काम उत्कृष्ट कोटि का होता हैं।

– गोफण :- पक्षियों को उड़ाने और पशुओं को खेत से बाहर निकालने के लिए पत्थर फेंकने के लिए सूत की बंट कर बनाई गई पट्‌टी, जिसके दोनों छोरों में लगभग एक हाथ लम्बी डोरियाँ लगी होती हैं। गोफण मुख्य रूप से मेवाड़ एवं बाँगड़ के आदिवासियों का प्रमुृख हथियार है।

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