राजस्थान सामान्य ज्ञान : राजस्थानी साहित्य एवं संस्कृति

 

 

स्वतंत्रता संग्राम से संबंधित पुस्तकें :-

1.मेवाड़ राज्य का वर्तमान शासन, पछीड़ा:-माणिक्यलाल वर्मा
2.जैसलमेर का गुण्डाराज, आजादी के दीवाने:-सागरमल गोपा
3.प्रत्यक्ष जीवनशास्त्र (आत्मकथा),

प्रलय-प्रतीक्षा नमो-नमो

:-पण्डित हीरालाल शास्त्री
4.प्रताप चरित्र, दुर्गादास चरित्र, रुठी रानी, चेतावणी रा चूंग्ट्या:-केसरीसिंह बारहठ
5.भारत में अंग्रेजी राज:-पण्डित सुन्दरलाल
6.शुद्र मुक्ति, स्त्री मुक्ति, महेन्द्र कुमार:-अर्जुनलाल सेठी
7.राजस्थान रोल इन द स्ट्रगल 1857:-नाथूलाल खड़गावत

 

  • कर्नल जेम्स टॉड –इंग्लैंड निवासी जेम्स टॉड सन् 1800 में पश्चिमी एवं मध्य भारत के राजपूत राज्यों के पॉलिटिकल एजेंट बनकर भारत आये थे। 1817 में वे राजस्थान की कुछ रियासतों के Political Agent बनकर उदयपुर आये। उन्होंने 5 वर्ष के सेवाकाल में राज्य की विभिन्न रियासतों में घूम-घूमकर इतिहास विषयक सामग्री एकत्रित की एवं इंग्लैण्ड जाकर 1829 ई. ‘Annals and antiquities of Rajasthan’ (Central and Western Rajpoot States of India) ग्रन्थ लिखा तथा 1839 ई. में ‘Travels in Western India’ (पश्चिमी राजस्थान की यात्रा) की रचना की। इन्हें राजस्थान के इतिहास लेखन का पितामह कहा जाता है।
  • सूर्यमल्ल मिश्रण –संवत् 1815 में चारण कुल में जन्मे श्री सूर्यमल्ल मिश्रण बूँदी के महाराव रामसिंह के दरबारी कवि थे। इन्होंने वंशभास्कर, वीर सतसई, बलवन्त विलास एवं छंद मयूख ग्रंथों की रचना की। इन्हें आधुनिक राजस्थानी काव्य के नवजागरण का पुरोधा कवि माना जाता है। उन्होंने अंग्रेजी शासन से मुक्ति प्राप्त करने हेतु उसके विरुद्ध जनमानस को उद्वैलित करने के लिए अपने काव्य में समयोचित रचनाएँ की है। अपने अपूर्व ग्रन्थ वीर-सतसई के प्रथम दोहे में ही वे ‘समय पल्टी सीस’ की उद्घोषणा के साथ ही अंग्रेजी दासता के विरुद्ध बिगुल बजाते हुए प्रतीत होते हैं। उनके एक-एक दोहे में राजस्थान की भूमि के लिए मर-मिटने वाले रणबाँकुरों के लिए ललकार दिखाई देती है। सूर्यमल्ल मिश्रण डिंगल भाषा के अंतिम महान कवि थे। डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी के अनुसार ‘सूर्यमल्ल’ अपने काव्य और कविता को ‘Lay of the last minstral’ बना गए और वे स्वयं बने “Last of the Giants’
  • डॉ. जयसिंह नीरज –राजस्थान के अलवर जिले के एक छोटे से ग्राम तोलावास में 11 फरवरी, 1929 को साधारण राजपूत परिवार में जन्मे डॉ. जयसिंह नीरज बचपन से ही विद्यानुरागी थे। उन्होंने एक ओर अपने सृजनात्मक लेखन से हिन्दी साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान बनाया वहीं दूसरी ओर राजस्थान की संस्कृति, चित्रकला संगीत और पुरातत्व आदि को अपनी अद्भुत मेधा का संस्पर्श देकर नये आयाम प्रस्तुत किये। उन्हें के.के. बिड़ला फाउण्डेशन द्वारा 25 अप्रैल, 1992 को प्रथम बिहारी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। ‘Splendour of Rajasthan Paining’, राजस्थानी चित्रकला, राजस्थान की सांस्कृतिक परम्परा आदि उनके द्वारा रचित प्रमुख ग्रंथ है। 2 मार्च, 2002 को इनका निधन हो गया।
  • गौरीशंकर हीराचन्द ओझा –डॉ. ओझा का जन्म 14 सितम्बर, 1863 को सिरोही जिले के रोहिड़ा गाँव में हुआ था। उन्होंने राजस्थान के इतिहास के अलावा राजस्थान के प्रथम इतिहास ग्रंथ ‘मुहणोत नैणसी री ख्यात’ का सम्पादन किया। हिन्दी में पहली बार भारतीय लिपि का शास्त्र लेखन कर अपना नाम गिनीज वर्ल्ड बुक में अंकित किया। कर्नल जेम्स टॉड की ‘एनल्स एंड एंटीक्विटीज ऑफ राजस्थान’ नामक बहुप्रसिद्ध कृति का हिन्दी में अनुवाद किया और उसमें रह गई त्रुटियों का परिशोधन किया।
  • डॉ. एल.पी. टैस्सीटोरी –इटली के एक छौटे से गाँव उदिने में 13 दिसम्बर, 1887 को जन्मे टैस्सीटोरी 8 अप्रैल, 1914 को मुम्बई (भारत) आए व जुलाई, 1914 में (जयपुर, राजस्थान) पहुँचे। बीकानेर उनकी कर्मस्थली रहा। बीकानेर का प्रसिद्ध व दर्शनीय म्यूजियम डॉ. टैस्सीटोरी की ही देन है। उनकी मृत्यु 22 नवम्बर, 1919 को बीकानेर में हुई। उनका कब्र स्थल बीकानेर में ही है। बीकानेर महाराजा गंगासिंह जी ने उन्हें राजस्थान के चारण साहित्य के सर्वेक्षण एवं संग्रह का कार्य सौंपा था जिसे पूर्ण कर उन्होंने पर रिपोर्ट दी तथा ‘राजस्थानी चारण साहित्य एवं ऐतिहासिक सर्वे’ तथा ‘पश्चिमी राजस्थान का व्याकरण’ नामक पुस्तकें लिखी थी। इन्होंने रामचरित मानस, रामायण व ऐतिहासिक सर्वे’ तथा ‘पश्चिमी राजस्थानी का व्याकरण’ नामक पुस्तकें लिखी थी। इन्होंने रामचरित मानस, रामायण व कई भारतीय ग्रन्थों का इटेलियन भाषा में अनुवाद किया था। बेलि किसन रूकमणी रीऔर छंद जैतसी रोडिंगल भाषा के इन दोनों ग्रंथों को संपादित करने का श्रेय उन्हें ही जाता है। सरस्वती और द्वषद्वती की सूखी घाटी में कालीबंगा के हड़प्पा पूर्व के प्रसिद्ध केन्द्र की खोज करने का सर्वप्रथम श्रेय डॉ. टैस्सीटोरी को ही जाता है। डॉ. टैस्सीटोरी ने पल्लू, बड़ोपल, रंगमहल, रतनगढ़, सूरतगढ़ तथा भटनेर आदि क्षेत्रों सहित लगभग आधे बीकानेर क्षेत्र की खोज की।

साहित्यिक शब्दावली

  • कक्का-कक्का उन रचनाओं को कहते हैं, जिनमें वर्णमाला के बावन वर्ण में से प्रत्येक वर्ण से रचना का प्रारम्भ किया जाता है।
  • ख्यात-ख्यात संस्कृत भाषा का शब्द है। शब्दार्थ की दृष्टि से इसका आशय ख्यातियुक्त, प्रख्यात, विख्यात, कीर्ति आदि है अर्थात् ख्याति प्राप्त, प्रसिद्ध एवं लोक विश्रुत पुरुषों की जीवन घटनाओं का संग्रह ख्यात कहलाता है। ख्यात में विशिष्ट वंश के किसी पुरुष या पुरुषों के कार्य़ों और उपलब्धियों का वर्णन मिलता है। ख्यातों का नामकरण वंश, राज्य या लेखक के नाम से किया जाता रहा, जैसे-राठौड़ाँ री ख्यात, मारवाड़ राज्य री ख्यात, नैणसी री ख्यात इत्यादि

–  इतिहास के विषयानुसार और शैली की दृष्टि से ख्यातों को दो भागों में बाँटा जा सकता है-(i) संलग्न ख्यात-ऐसी ख्यातों में क्रमानुसार इतिहास लिखा हुआ होता है, जैसे-दयालदास की ख्यात। (ii) बात-संग्रह – ऐसी ख्यातों में अलग-अलग छोटी या बड़ी बातों द्वारा इतिहास के तथ्य लिखे हुए मिलते हैं, जैसे-नैणसी एवं बाँकीदास की ख्यात।

–  ख्यातों का लेखन मुगल बादशाह अकबर (1556-1605 ई.) के शासनकाल से प्रारम्भ माना जाता है, जब अबुल फजल द्वारा अकबरनामा के लेखन हेतु सामग्री एकत्र की गई, तब राजपूताना की विभिन्न रियासतों को उनके राज्य तथा वंश का ऐतिहासिक विवरण भेजने के लिए बादशाह द्वारा आदेश दिया गया था। इसी संदर्भ में लगभग प्रत्येक राज्य में ख्यातें लिखी गई।

–  ख्यातों का लेखन प्राचीन बहियों, समकालीन ऐतिहासिक विवरणों, बड़वा भाटों की वंशावलियों, श्रुति परम्परा से चली आ रही इतिहासपरक बातों, पट्टों-परवानों के आधार पर किया गया था। ख्यातों से समाज की राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक, नैतिक एवं सांस्कृतिक प्रवृत्तियों का दिग्दर्शन होता है।

  • झमाल-झमाल राजस्थानी काव्य का मात्रिक छन्द है। इसमें पहले पूरा दोहा, फिर पाँचवें चरण में दोहे के अंतिम चरण की पुनरावृत्ति की जाती है। छठे चरण में दस मात्राएँ होती हैं। इस प्रकार दोहे के बाद चान्द्रायण फिर उल्लाला छन्द रखकर सिंहावलोकन रीति (धीरे-धीरे) से पढ़ा जाता है। राव इन्द्रसिंह री झमाल प्रसिद्ध है।
  • झूलणा-झूलणा राजस्थानी काव्य का मात्रिक छन्द है। इसमें 24 अक्षर के वर्णिक छन्द के अंत में यगण होता है। अमरसिंह राठौड़ रा झूलणा, राजा गजसिंह रा झूलणा, राव सुरतांण-देवड़े रा झूलणा आदि प्रमुख झूलणें हैं।
  • टब्बा और बालावबोध-मूल रचना के स्पष्टीकरण हेतु पत्र के किनारों पर टिप्पणियाँ लिखी जाती है उन्हें टब्बा कहते हैं और विस्तृत स्पष्टीकरण को बालावबोध कहा जाता है।
  • दवावैत-गद्य-पद्य में लिखी गई तुकान्त रचनाएँ ‘दवावैत‘ कहलाती है। गद्य के छोटे-छोटे वाक्य खण्डों के साथ पद्य में किसी एक घटना अथवा किसी पात्र का जीवन वृत्त ‘दवावैत‘ में मिलता है। अखमाल देवड़ा री दवावैत महाराणा जनवानसिंह री दवावैत, राजा जयसिंह री दवावैत आदि प्रमुख दवावैत ग्रंथ हैं।
  • दूहा-राजस्थान में वीर तथा दानी पुरुषों पर असंख्य दोहे लिखे गये हैं जिनसे उनके साहस, धैर्य, त्याग, कर्त्तव्यपरायणता, दानशीलता तथा ऐतिहासिक घटनाओं की जानकारी मिलती हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से अखैराज सोनिगरै रा दूहा, अमरसिंघ गजसिंघोत रा दूहा, करण सगतसिंघोत रा दूहा, कान्हड़दे सोनिगरै रा दूहा आदि प्रमुख हैं।
  • धमाल-राजस्थान में होली के अवसर पर गाये जाने वाले गीतों को धमाल कहा जाता है। होली के अवसर पर गाई जाने वाली एक राग का नाम भी धमाल है।
  • परची-संत महात्माओं का जीवन परिचय जिस पद्यबद्ध रचना में मिलता है उसे राजस्थानी भाषा में परची कहा गया है। इनमें संतों के नाम, जाति, जन्मस्थान, माता-पिता एवं परिवार के अन्य सदस्यों का नाम एवं उनकी साधनागत उपलब्धियों का वर्णन मिलता है। संत साहित्य के इतिहास अध्ययन के लिए ये कृतियाँ उपयोगी हैं संत नामदेव की परची, कबीर की परची, संत रैदास की परची, संत पीपा की परची, संत दादू की परची, मीराबाई की परची आदि प्रमुख परची रचना हैं।
  • प्रकास-किसी वंश अथवा व्यक्ति विशेष की उपलब्धियों या घटना विशेष पर प्रकाश डालने वाली कृतियों को ‘प्रकास‘ कहा गया है। प्रकाश ऐतिहासिक दृष्टि से उपयोगी है। किशोरदास का राजप्रकास, आशिया मानसिंह का महायश प्रकास, कविया करणीदास का सूरज प्रकास, रामदान लालस का भीमप्रकास, मोडा आशिया का पाबूप्रकास, किशन सिढ़ायच का उदयप्रकास, बख्तावर का केहर प्रकास, कमजी दधवाड़िया का दीप कुल प्रकास इत्यादि महत्वपूर्ण प्रकास ग्रंथ हैं।
  • प्रशस्ति-राजस्थान में मंदिरों, दुर्गद्वारों, कीर्तिस्तम्भों आदि पर प्रशस्तियाँ उत्कीर्ण मिलती है। इनमें राजाओं की उपलब्धियों का प्रशंसायुक्त वृत्तान्त मिलता है इसलिए इन्हें ‘प्रशस्ति‘ कहते हैं। मेवाड़ में प्रशस्तियाँ उत्कीर्ण करने की परम्परा रही है। प्रशस्तियों में राजाओं का वंशक्रम, युद्ध अभियानों, पड़ौसी राज्यों से संबंध, उनके द्वारा निर्मित मंदिर, जलाशय, बाग-बगीचों, राजप्रासादों आदि का वर्णन मिलता है। इनसे उस समय के बौद्धिक स्तर का भी पता चलता है। प्रशस्तियों में यद्यपि अतिश्योक्तिपूर्ण वर्णन मिलता है, फिर भी इतिहास निर्माण में ये उपयोगी है। नेमिनाथ मंदिर की प्रशस्ति, सुण्डा पर्वत की प्रशस्ति, राज प्रशस्ति, रायसिंह प्रशस्ति, कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति, कुम्भलगढ़ प्रशस्ति इत्यादि प्रमुख  प्रशस्तियाँ हैं जो तत्कालीन समय की राजनैतिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक दशा का ज्ञान कराती हैं।
  • बही-एक विशेष प्रकार की बनावट के रजिस्टर को बही कहते हैं, जिसमें इतिहास सम्बन्धी कई उपयोगी सामग्री दर्ज की हुई मिलती हैं। राव व बड़वे अपनी बही में आश्रयदाताओं के नाम और उनकी मुख्य उपलब्धियों का ब्यौरा लिखते थे। इसी प्रकार ‘राणी मंगा‘ जाति के लोग कुँवरानियों व ठकुरानियों के नाम और उनकी संतति का विवरण अपनी बही में लिखते थे। यह कार्य पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता था। चित्तौड़-उदयपुर पाटनामा रही बही, पाबूदान रही बही, जोधपुर राणी मंगा रही बही इत्यादि प्रमुख बहियाँ हैं।
  • बात-ऐतिहासिक घटनाओं, इतिहास प्रसिद्ध पात्रों और पौराणिक आख्यानों को लेकर अनेक छोटी-छोटी बातें लिखी गई हैं। प्रारम्भ में बाते मौखिक ही रही, लेकिन बादमें याद रखने की सुविधा व राजा-महाराजाओं के पठनार्थ बातों को लिखा गया। ये बातें तत्कालीन समाज की विभिन्न प्रवृत्तियों की जानकारी देती हैं। बातें काल्पनिक भी होती थी। कथानक, विषय, भाषा, रचना-प्रकार, शैली और उद्देश्य की दृष्टि से बातें अनेक प्रकार की मिलती हैं। तत्कालीन समय में बातों के माध्यम से ही समाज को आवश्यक ज्ञान दिया जाता था। बातों में बाल-विवाह, बहुविवाह, पर्दा, दहेज एवं सती प्रथा का भी चित्रण मिलता है। राणा प्रताप री बात, राव मालदेव री बात, अचलदास खींची री बात, राजा उदयसिंह री बात, वीरमदे सोनगरा री बात, राव चन्द्रसेन री बात इत्यादि प्रमुख बाते हैं।

–  बात का एक उदाहरण इस प्रकार मिलता है- ‘पिंगल राजा सावंतसी देवड़ा नूं आदमी मेल कहायौ-अबै थै आणौ करौ। तद सावंतसी घणों ही विचारियौ पण बात बांध कोई वैसे नहीं, कुंवरी नै ऊझणों दे मेलीजे। तद ऊठ घोड़ा, रथ, सेजवाल, खवास, पासवान, साथे हुआ सो उदैचंद खमैं नहीं।‘

  • बारहमासा-बारहमासा में कवि वर्ष के प्रत्येक मास की परिस्थितियों का चित्रण करते हुए नायिका का विरह वर्णन करते हैं। बारहमासा का वर्णन प्रायः आषाढ़ से प्रारम्भ होता है।
  • मरस्या-मरस्या से तात्पर्य ‘शोक काव्य‘ से है। राजा या किसी व्यक्ति विशेष की मृत्योपरान्त शोक व्यक्त करने के लिए ‘मरस्या‘ काव्यों की रचना की जाती थी। इसमें उस व्यक्ति के चारित्रिक गुणों के अलावा अन्य क्रिया-कलापों का जिक्र भी किया जाता था। यह कृतियाँ समसामयिक होने के कारण उपयोगी हैं। ‘राणे जगपत रा मरस्या‘ मेवाड़ महाराणा जगतसिंह की मृत्यु पर शोक प्रकट करने के लिए लिखा गया था।
  • रासो-मध्यकालीन राजपूत शासकों ने विद्वानों और कवियों को राज्याश्रय प्रदान किया। उन विद्वानों ने शासकों की प्रशंसा में काव्यों की रचना की, जिनमें इतिहास विषयक सामग्री मिलती है। ऐसे काव्यों को ‘रासो‘ कहा जाता है। मोतीलाल मेनारिया के अनुसार, “जिस काव्य ग्रन्थ में किसी राजा की कीर्ति, विजय, युद्ध, वीरता आदि का विस्तृत वर्णन हो, उसे रासो कहते हैं।“ हिन्दी साहित्य कोश के अनुसार रासो नाम से अभिहित कृतियाँ दो प्रकार की हैं- पहली गीत-नृत्य परक जो राजस्थान तथा गुजरात में रची गई और दूसरी छन्द-वैविध्य परक जो पूर्वी राजस्थान में लिखी गई। रासो ग्रन्थों में चन्द्रबरदाई का पृथ्वीराजरासो, नृपति नाल्ह का बीसलदेव रासो, कविजान का क्यामखां रासो, दौलत विजय का खुमाण रासो, गिरधर आसियाँ का सगतरासो, राव महेशदास का बिन्है रासो, कुम्भकर्ण का रतन रासो, डूंगरसी का शत्रुशाल रासो, जोधराज का हम्मीर रासो, जाचिक जीवन का प्रतापरासो, सीताराम रत्नु का जवान रासो प्रमुख हैं।
  • रूपक-किसी वंश अथवा व्यक्ति विशेष की उपलब्धियों के स्वरूप को दर्शाने वाली काव्य कृतियों का नाम रूपक रखा गया है। गजगुणरूपक, रूपक गोगादेजी रो, राजरूपक आदि प्रमुख रूपक काव्य हैं।
  • वंशावली/पीढ़ियाँवली-वंशावलियों में विभिन्न वंशां की सूचियाँ मिलती हैं। इन सूचियों में वंश के आदिपुरुष से विद्यमानपुरुष तक पीढ़ीवार वर्णन मिलता है। वंशावलियाँ और पीढ़ियाँवलियाँ अधिकतर ‘भाटों‘ द्वारा लिखी गई हैं। प्रत्येक राजवंश तथा सामन्त परिवार भटों का यजमान होता था। राजवंश की वंशावली तैयार करना, शासकों तथा उनक परिवार के सदस्यों के कार्यकलापों का विस्तृत विवरण रखना उनका मुख्य कार्य होता था। वंशावलियाँ और पीढ़ियाँवालियाँ शासकों, सामन्तों, महारानियों, राजकुमारों, मंत्रियों, नायकों के वंशवृक्ष के साथ-साथ मुख्य घटनाओं का वर्णन भी उपलब्ध करवाती हैं। फलतः इतिहास के व्यक्तिक्रम, घटनाक्रम और संदर्भक्रम की दृष्टि से वंशावलियाँ उपयोगी हैं। अमरकाव्य वंशावली, सूयवंश वंशावली, राणाजी री वंशावली, सिसोद वंशावली आदि महत्वपूर्ण वंशावलियाँ हैं।
  • वचनिका-वचनिका शब्द संस्कृत के वचन से बना है। राजस्थानी साहित्य में गद्य-पद्य मिश्रित काव्य को वचनिका की संज्ञा दी गई है। वचनिका के दो भेद होते हैं- (i) पद्यबद्ध तथा (ii) गद्यबद्ध।
  • –  पद्यबद्ध में आठ-आठ अथवा बीस-बीस मात्राओं के तुकयुक्त पद होते हैं जबकि गद्यबद्ध में मात्राओं का नियम लागू नहीं होता है। इन कृतियों से स्थानीय योद्धाओं का वर्णन प्राप्त होता है। अचलदास खींची री वचनिका, वचनिका राठौड़ रूपसिंहजी री, वचनिका राठौड़ रतनसिंघजी महेसदासौत री आदि प्रमुख वचनिकाएँ हैं।
  • विगत-विगत में किसी विषय का विस्तृत विवरण होता है। इसमें इतिहास की दृष्टि से शासक, शासकीय परिवार, राज्य के प्रमुख व्यक्ति अथवा उनके राजनीतिक, सामाजिक व्यक्तित्व का वर्णन मिलता है। आर्थिक दृष्टि से विगत में उपलब्ध आंकड़े तत्कालीन आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों को जानने के लिए उपयोगी स्रोत हैं।

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