राजस्थान सामान्य ज्ञान : राजस्थानी बोलियां और उनके क्षेत्र

 

 

मारवाड़ी की बोलियाँ- मेवाड़ी, बागड़ी, शेखावाटी, बीकानेरी, ढटकी, थली, खैराड़ी, नागौरी, देवड़ावाटी, गौड़वाड़ी।

  • मेवाड़ी –उदयपुर एवं उसके आसपास के क्षेत्र को मेवाड़ कहा जाता है, इसलिए यहाँ की बोली मेवाड़ी कहलाती है। यह मारवाड़ी के बाद राजस्थान की महत्वपूर्ण बोली है। मेवाड़ी बोली के विकसित और शिष्ट रूप के दर्शन हमें 12वीं-13वीं शताब्दी में ही मिलने लगते हैं। मेवाड़ी का शुद्ध रूप मेवाड़ के गाँवों में ही देखने को मिलता है। मेवाड़ी में लोक साहित्य का विपुल भण्डार है। महाराणा कुंभा द्वारा रचित कुछ नाटक इसी भाषा में हैं।
  • वागड़ी –डूँगरपुर एवं बाँसवाड़ा में सम्मिलित राज्यों का प्राचीन नाम वागड़ था। अतः वहाँ की भाषा वागड़ी कहलायी, जिस पर गुजराती का प्रभाव अधिक है। यह भाषा मेवाड़ के दक्षिणी भाग, दक्षिणी अरावली प्रदेश तथा मालवा की पहाड़ियों तक के क्षेत्र में बोली जाती है। यह भीलों में भी प्रचलित है। भीली बोली इसकी सहायक बोली है।
  • ढूँढाड़ी –उत्तरी जयपुर को छोड़कर शेष जयपुर, किशनगढ़, टोंक, लावा तथा अजमेर-मेरवाड़ा के पूर्वी अंचलों में बोली जाने वाली भाषा ढूँढाड़ी कहलाती है। इस पर गुजराती, मारवाड़ी एवं ब्रजभाषा का प्रभाव समान रूप से मिलता है। ढूँढाड़ी में गद्य एवं पद्य दोनों में प्रचुर साहित्य रचा गया। संत दादू एवं उनके शिष्यों ने इसी भाषा में रचनाएँ की। इस बोली को जयपुरी या झाड़शाही भी कहते हैं। इसका बोली के लिए प्राचीनतम उल्लेख 18वीं शताब्दी की ‘आठ देस गूजरी’ पुस्तक में हुआ है।

ढूँढाड़ी की प्रमुख बोलियाँ- तोरावाटी, राजावाटी, चौरासी (शाहपुरा), नागरचोल, किशनगढ़ी, अजमेरी, काठेड़ी, हाड़ौती।

  • तोरावाटी –झुंझुनूँ जिले का दक्षिणी भाग, सीकर जिले का पूर्वी एवं दक्षिणी-पूर्वी भाग तथा जयपुर जिले के कुछ उत्तरी भाग को तोरावाटी कहा जाता है। अतः यहाँ की बोली तोरावाटी कहलाई। काठेड़ी बोली जयपुर जिले के दक्षिणी भाग में प्रचलित है जबकि चौरासी जयपुर जिले के दक्षिणी-पश्चिमी एवं टोंक जिले के पश्चिमी भाग में प्रचलित है। नागरचोल सवाईमाधोपुर जिले के पश्चिमी भाग एवं टोंक जिले के दक्षिणी एवं पूर्वी भाग में बोली जाती है। जयपुर जिले के पूर्वी भाग में राजावाटी बोली प्रचलित है।
  • हाड़ौती –हाड़ा राजपूतों द्वारा शासित होने के कारण कोटा, बूँदी, बारां एवं झालावाड़ का क्षेत्र हाड़ौती कहलाया और यहाँ की बोली हाड़ौती, जो ढूँढाड़ी की ही एक उपबोली है। हाड़ौती का भाषा के अर्थ में प्रयोग सर्वप्रथम केलॉग की हिन्दी ग्रामर में सन् 1875 ई. में किया गया। इसके बाद अब्राहम ग्रियर्सन ने अपने ग्रंथ में भी हाड़ौती को बोली के रूप में मान्यता दी। सूर्यमल्ल मिश्रण की अधिकांश रचनाएँ हाड़ौती भाषा में है।

वर्तमान में हाड़ौती कोटा, बूँदी (इन्द्रगढ़ एवं नैनवा तहसीलों के उत्तरी भाग को छोड़कर), बाराँ (किशनगंज एवं शाहबाद तहसीलों के पूर्वी भाग के अलावा) तथा झालावाड़ के उत्तरी भाग की प्रमुख बोली है। हाड़ौती के उत्तर में नागरचोल, उत्तर-पूर्व में स्यौपुरी, पूर्व तथा दक्षिण में मालवी बोली जाती है। कवि सूर्यमल्ल मिश्रण की रचनाएँ इसी बोली में है।

  • मेवाती –अलवर एवं भरतपुर जिलों का क्षेत्र मेव जाति की बहुलता के कारण मेवात के नाम से जाना जाता है। अतः यहाँ की बोली मेवाती कहलाती है। यह अलवर की किशनगढ़, तिजारा, रामगढ़, गोविन्दगढ़, लक्ष्मणगढ़ तहसीलों तथा भरतपुर की कामां, डीग व नगर तहसीलों के पश्चिमोत्तर भाग तक तथा हरियाणा के गुड़गाँव जिला व उ.प्रदेश के मथुरा जिले तक विस्तृत है। यह सीमावर्तिनी बोली है। उद्भव एवं विकास की दृष्टि से मेवाती पश्चिमी हिन्दी एवं राजस्थानी के मध्य सेतु का कार्य करती है। मेवाती बोली पर ब्रजभाषा का प्रभाव बहुत अधिक दृष्टिगोचर होता है। लालदासी एवं चरणदासी संत सम्प्रदायों का साहित्य मेवाती भाषा में ही रचा गया है। चरणदास की शिष्याएँ दयाबाई व सहजोबाई की रचनाएँ इस बोली में है। स्थान भेद के आधार पर मेवाती बोली के कई रूप देखने को मिलते हैं, जैसे खड़ी मेवाती, राठी मेवाती, कठेर मेवाती, भयाना मेवाती, बीघोता, मेव व ब्राह्मण मेवाती आदि।
  • अहीरवाटी (राठी) –‘आभीर’ जाति के क्षेत्र की बोली होने के कारण इसे हीरवाटी या हीरवाल भी कहा जाता है। इस बोली के क्षेत्र को राठ कहा जाता है इसलिए इसे राठी भी कहते हैं। यह मुख्यतः अलवर की बहरोड़ व मुंडावर तहसील, जयपुर की कोटपूतली तहसील के उत्तरी भाग, हरियाणा के गुड़गाँव , महेन्द्रगढ़, नारनौल, रोहतक जिलों एवं दिल्ली के दक्षिणी भाग में बोली जाती है। यह बाँगरु (हरियाणवी) एवं मेवाती के बीच की बोली है। जोधराज का हम्मीर रासौ महाकाव्य, शंकर राव का भीम विलास काव्य, अलीबख्शी ख्याल लोकनाट्य आदि की रचना इसी बोली में की गई है।
  • मालवी –यह मालवा क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा है। इस बोली में मारवाड़ी एवं ढूँढाड़ी दोनों की कुछ विशेषताएँ पायी जाती है। कहीं-कहीं मराठी का भी प्रभाव झलकता है। मालवी एक कर्णप्रिय एवं कोमल भाषा है। इस बोली का राँगड़ी रूप कुछ कर्कश है, जो मालवा क्षेत्र के राजपूतों की बोली है।
  • नीमाड़ी –इसे मालवी की उपबोली माना जाता है। नीमाड़ी को दक्षिणी राजस्थानी भी कहा जाता है। इस पर गुजराती, भीली एवं खानदेशी का प्रभाव है।
  • खैराड़ी –शाहपुरा (भीलवाड़ा) बूँदी आदि के कुछ इलाकों में बोली जाने वाली बोली, जो मेवाड़ी, ढूँढाड़ी एवं हाड़ौती का मिश्रण है।
  • रांगड़ी –मालवा के राजपूतों में मालवी एवं मारवाड़ी के मिश्रण से बनी रांगड़ी बोली भी प्रचलित है।
  • शेखावाटी –मारवाड़ी की उपबोली शेखावाटी राज्य के शेखावाटी क्षेत्र (सीकर, झुंझुनुँ तथा चुरू जिले के कुछ क्षेत्र) में बोली जाने वाली भाषा है जिस पर मारवाड़ी एवं ढूँढाड़ी का पर्याप्त प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।
  • गौड़वाड़ी –जालौर जिले की आहोर तहसील के पूर्वी भाग से प्रारम्भ होकर बाली (पाली) में बोली जाने वाली यह मारवाड़ी की उपबोली है। बीसलदेव रासौ इस बोली की मुख्य रचना है। बालवी, सिरोही, खणी, महाहड़ी इसकी उपबोलियाँ हैं।
  • देवड़ावाटी –यह भी मारवाड़ी की उपबोली है जो सिरोही क्षेत्र में बोली जाती है। इसका दूसरा नाम सिरोही है।
  1. प्रसिद्ध इटालियन विद्वान एवं भाषाशास्त्री डॉ. एल.पी. तेस्सितोरी ने पश्चिमी राजस्थानी की उत्पत्ति शौरसेनी अपभ्रंश से बताई। श्री तेस्सितोरी ने अपना अधिकांश समय बीकानेर में ही गुजारा एवं वहीं उनका देहान्त हुआ।
  2. सर जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने राजस्थानी का उद्भव शौरसैनी के नागर अपभ्रंश से होना प्रतिपादित किया। डॉ. पुरुषोत्तम मेनारिया भी इसी मत के समर्थक हैं।
  3. श्री कन्हैयालाल माणिक्यलाल मुंशी एवं डॉ. मोतीलाल मेनारिया राजस्थानी की उत्पत्ति शौरसैनी के गुर्जरी अपभ्रंश से मानते हैं। यही मत अधिक सही है

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