राजस्थानी का विस्तार –
- वर्तमान में राजस्थानी भाषा बोलने वालों की संख्या 8 करोड़ से भी अधिक है। यह भाषा राजस्थान, मध्यभारत के पश्चिमी भाग, सिंध, पंजाब एवं हरियाणा के राजस्थान के निकटवर्ती क्षेत्रों में बोली जाती है।
राजस्थानी भाषा का वर्गीकरण –
- डॉ. जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने अपनी पुस्तक Linguistic Survey of India की नौंवी जिल्द के दूसरे भाग में राजस्थानी का स्वतंत्र भाषा के रूप में वैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत किया। उन्होंने राजस्थानी भाषा कीपाँच उपशाखाएँ निम्न प्रकार बताई हैं :-
1) पश्चिमी राजस्थानी – इसकी प्रतिनिधि बोलियाँ – मारवाड़ी, मेवाड़ी, बागड़ी एवं शेखावाटी हैं।
2) मध्य-पूर्वी राजस्थानी – इसकी मुख्य बोलियाँ – ढूँढाड़ी व हाड़ौती हैं।
3) उत्तरी-पूर्वी राजस्थानी – इसमें मेवाती एवं अहीरवाटी को शामिल किया गया है।
4) दक्षिणी-पूर्वी राजस्थानी – इसकी मुख्य बोलियाँ मालवी तथा नीमाड़ी हैं।
5) दक्षिणी राजस्थानी
डॉ. एलपी टैस्सीटौरी ने राजस्थानी की बोलियों को निम्न दो भागों में बाँटा हैं-
- पश्चिमी राजस्थानी –शेखावाटी, जोधपुर की खड़ी राजस्थानी, ढटकी, थली, बीकानेरी, किसनगढ़ी, खैराड़ी, सिरोही की बोलियाँ – गौड़वाड़ी एवं देवड़ावटी
- पूर्वी राजस्थानी (ढूँढ़ाड़ी) –तोरावाटी, खड़ी जयपुरी, काठौड़ी, अजमेरी, राजावाटी, चौरासी, नागरचौल, हाड़ौती आदि।
- विभिन्न विद्वानों के भाषा वर्गीकरण के मद्देनजर हम राजस्थानी भाषा को (अ) पूर्वी राजस्थानी एवं (ब) पश्चिमी राजस्थानी नामक दो मुख्य वर्ग़ों में बाँट सकते हैं। पूर्वी राजस्थानी की प्रतिनिधि बोलियाँ- ढूँढाड़ी (जयपुरी), हाड़ौती, मेवाती एवं अहीरवाटी हैं तथा पश्चिमी राजस्थानी की प्रतिनिध बोलियाँ – मारवाड़ी, मेवाड़ी, बागड़ी एवं शेखावाटी हैं। राजस्थान में हर 9-10 किमी. के अन्तराल पर बोली में अंतर आ जाता है। इस संबंध में यह कहावत सही है कि-
पाँच कोस पर पाणी बदले, सात कोस पर बाणी।
राजस्थानी भाषा की इन बोलियों का संक्षिप्त विवरण अग्र प्रकार हैः-
- मारवाड़ी –कुवलयमाला में जिसे मरुभाषा कहा गया है, वह यही मारवाड़ी है। इसका प्राचीन नाम मरुभाषा है जो पश्चिमी राजस्थान की प्रधान बोली है। मारवाड़ी का आरम्भ काल 8वीं सदी से माना जा सकता है। विस्तार एवं साहित्य दोनों ही दृष्टियों से मारवाड़ी राजस्थान की सर्वाधिक समृद्ध एवं महत्वपूर्ण भाषा है। इसका विस्तार जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर, पाली, नागौर, जालौर एवं सिरोही जिलों तक है। विशुद्ध मारवाड़ी केवल जोधपुर एवं आसपास के क्षेत्र में ही बोली जाती है। मारवाड़ी के साहित्यिक रूप को ‘डिंगल’ कहा जाता है। इसकी उत्पत्ति गुर्जरी अपभ्रंश से हुई है। जैन साहित्य एवं मीराँ के अधिकांश पद इसी भाषा में लिखे गए हैं। राजिये रा सोरठा, वेलि किसन रुक्मणी री, ढोला मारवण, मूमल आदि लोकप्रिय काव्य मारवाड़ी भाषा में ही रचित हैं। इसकी उत्पत्ति शौरसैनी के गुर्जरी, अपभ्रंश से मानी जाती है।