राजस्थान सामान्य ज्ञान : राजस्थान के प्रमुख राजवंश एंव उनकी उपलब्धियां

 

 

राणा मोकल (1421-1433 .)

  • राणा लाखा व हंसा बाई से वृद्धावस्था में उत्पन्न पुत्र।
  • इसके समय राठौड़ों का मेवाड़ में प्रभाव बढ़ गया था।
  • राणा मोकल ने समद्विश्वर मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया तथा द्वारिकानाथ (विष्णु) का मंदिर बनवाया।
  • राणा मोकल की हत्या महाराणा खेता की पासवान के पुत्र चाचा और मेरा नामक    सामन्तों ने सन् 1433 में की।

कुँवर चूड़ा

  • लाखा का बड़ा पुत्र, राजपूताने का भीष्म, मारवाड़ के राव चूँडा

राठौड़ की पुत्री का विवाह लाखा के साथ एवं उसके पुत्र मोकल के उत्तराधिकारी बनने पर कुंवर चूंडा ने मोकल का साथ दिया।

कुम्भा या कुम्भकर्ण (1433-68 .)

  • मेवाड़ का महानतम शासक, राणा मोकल व सौभाग्य देवी का पुत्र।
  • महाराणा कुम्भा का काल ‘कला एवं वास्तुकला का स्वर्णयुग‘ कहा जाता है।
  • गुरु का नाम – जैनाचार्य हीरानन्द।
  • कुम्भा ने आचार्य सोमदेव को ‘कविराज‘ की उपाधि प्रदान की।
  • कुम्भा की पुत्री – रमाबाई (संगीत शास्त्र की ज्ञाता, उपनाम- वागीश्वरी)।
  • सारंगपुर का प्रसिद्ध युद्ध (1437 ई.) में मालवा के महमूद खिलजी प्रथम को हराया। इस विजय के उपलक्ष्य में विजय स्तम्भ/कीर्ति स्तम्भ (चित्तौड़) का निर्माण कराया, जो 1440 ई. में बनना शुरू होकर 1448 ई. में पूर्ण हुआ।
  • विजय स्तम्भ के शिल्पी जैता  उसके पुत्र नापापोमा  पूंजा थे। विजय स्तम्भ को ‘भारतीय मूर्तिकला का विश्वकोष‘ भी कहा जाता है। इसकी नौ मंजिलें है तथा तीसरी मंजिल पर अरबी भाषा में नौ बार ‘अल्लाह‘ लिखा हुआ है।
  • राजस्थान की वह पहली ऐतिहासिक इमारत जिस पर डाक टिकट जारी हुआ था – विजयस्तम्भ (15 अगस्त, 1949 को 1 रु. का डाक टिकट)। कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति के लेखक – कवि अत्रि व उसका पुत्र महेश।
  • रणकपुर का प्रसिद्ध जैन मंदिर इसी काल में निर्मित – 1439 ई. (चौमुख मन्दिर/आदिनाथ मन्दिर), इस मंदिर को ‘खम्भों का अजायबघर‘ तथा ‘स्तम्भों का वन’ कहा जाता है। कुल 1444 खम्भे, मंदिर परिसर में प्रसिद्ध वैश्या मंदिर।
  • निर्माता – धरणकशाह या धन्ना सेठ (कुम्भा का वित्त मंत्री), प्रधान शिल्पी –    दैपाक/देपा।
  • इस मन्दिर को चतुर्मुख जिनप्रसाद भी कहा जाता है।
  • मेह कवि ने इस मन्दिर को त्रिलोक दीपक तथा विमलसूरी ने इस मन्दिर को नलिनी गुल्म विमान कहा है।
  • चित्तौड़ दुर्ग में जैन कीर्ति स्तम्भ का निर्माण इसी काल में, निर्माता – जैन महाजन जीजाशाह।
  • कुम्भलगढ़, अचलगढ़ (आबु पर्वत) सहित 32 दुर्गों का निर्माता (मेवाड़ में कुल 84 दुर्ग हैं जिनमें से 32 दुर्ग़ों का निर्माता कुम्भा स्वयं है)
  • कुम्भा की उपाधियाँ – 1. हालगुरु – गिरि दुर्गो का स्वामी होने के कारण। 2. राणो रासो – विद्वानों का आश्रयदाता होने के कारण। 3. हिन्दू सुरत्ताण – समकालीन मुस्लिम शासकों द्वारा प्रदत्त। 4. अभिनव भरताचार्य – संगीत के क्षेत्र में कुम्भा के विपुल ज्ञान के कारण। 5. राजगुरु – राजाओं को शिक्षा देने की क्षमता होने के कारण कहलाये। 6. तोडरमल – कुम्भा के हयेश (अश्वपति), हस्तीश (गजपति) और नरेश (पैदल सेना का अधिपति) होने से
  • कहलाये। 7. नाटकराज का कर्त्ता-नृत्यशास्त्र के ज्ञाता होने के कारण। 8. धीमान-बुद्धिमत्तापूर्वक निर्माणादि कार्य करने से। 9. शैलगुरु-शस्त्र या भाला का उपयोग सिखाने से। 10. नंदिकेश्वरावतार-नंदिकेश्वर के मत का अनुसरण करने के कारण।
  • राणा कुंभा को राजस्थान में स्थापत्य कला का जनक कहा जाता है।
  • कुम्भस्वामी मंदिर, एकलिंग मंदिर, मीरा मंदिर, शृंगार गोरी मंदिर आदि का चित्तौड़ दुर्ग में निर्माण।
  • इनके राज्याश्रित कान्ह व्यास द्वारा ‘एकलिंग-महात्म्य‘ पुस्तक रचित जिसमें ‘राजवर्णन‘ अध्याय स्वयं कुंभा ने लिखा। कुम्भा द्वारा रचित विभिन्न ग्रन्थ – 1. संगीत राज – यह कुंभा द्वारा रचित

सारे ग्रंथों में सबसे वृहद्, सर्वश्रेष्ठ, सिरमौर ग्रंथ है। भारतीय संगीत की गीत-वाद्य-नृत्य, तीनों विधाओं का गूढ़तम विशद् शास्त्रोक्त समावेश इस महाग्रंथ में हुआ है। 2. रसिक प्रिया – गीत गोविन्द की टीका। 3. कामराजरतिसार – यह ग्रंथ कुंभा के कामशास्त्र विशारद होने का परिचायक ग्रंथ है।

  • अन्य ग्रंथ – संगीत मीमांसा, सूड़ प्रबन्ध, संगीत रत्नाकर टीका, चण्डी शतक टीका आदि।
  • प्रसिद्ध वास्तुकार मण्डन को आश्रय, कुम्भलगढ़ दुर्ग का प्रमुख शिल्पी मण्डन था।
  • मण्डन – ये खेता ब्राह्मण के पुत्र तथा कुंभा के प्रधान शिल्पी थे। इनके द्वारा

रचित ग्रन्थ हैं  –

  1. प्रासाद मंडन– इस ग्रंथ में देवालय निर्माणकला का विस्तृत विवेचन है।
  2. राजवल्लभ मंडन– इस ग्रंथ में नागरिकों के आवासीय गृहों, राजप्रासाद एवं नगर रचना का विस्तृत वर्णन है।
  3. रूप मंडन– यह मूर्तिकला विषयक ग्रंथ है।
  4. देवतामूर्ति प्रकरण (रूपावतार– इस ग्रंथ में मूर्ति निर्माण और प्रतिमा स्थापना के    साथ ही प्रयुक्त होने वाले विभिन्न उपकरणों का विवरण दिया गया है।
  5. वास्तु मंडन– वास्तुकला का सविस्तार वर्णन है।
  6. वास्तुसार– इसमें वास्तुकला संबंधी दुर्ग, भवन और नगर निर्माण संबंधी वर्णन है।
  7. कोदंड मंडन– यह ग्रंथ धनुर्विद्या संबंधी है।
  8. शकुन मंडन– इसमें शगुन और अपशगुनों का वर्णन है।
  9. वैद्य मंडन– इसमें विभिन्न व्याधियों के लक्षण और उनके निदान के उपाय बताए गए हैं।
  • मंडन के भाई नाथा ने वास्तुमंजरी तथा पुत्र गोविन्द ने कलानिधि नामक ग्रन्थों की रचना की।
  • कुंभाकालीन जैन आचार्य – सोमसुन्दर सूरि, जयशेखर सूरि, भुवन कीर्ति एवं सोमदेव।
  •  कुम्भा के समय माण्डलगढ़ पर महमूद खिलजी प्रथम ने 3 बार आक्रमण किए।
  • कुम्भा के समय गुजरात व मेवाड़ में संघर्ष का मुख्य कारण नागौर के उत्तराधिकार का मामला था।
  • मालवा व गुजरात के मध्य चम्पानेर की संधि (1456) कुम्भा के विरूद्ध हुई।
  • कुम्भा की हत्या उसके पुत्र उदा (उदयकरण) ने सन् 1468 ई. में कटारगढ़ (कुम्भलगढ़) में की परन्तु कुंभा के बाद उसका दूसरा पुत्र रायमल राजा बना।
  • कुम्भलगढ़ दुर्ग कुम्भा द्वारा अपनी पत्नी कमलदेवी की याद में 1443-1459 के बीच बनवाया गया। कुम्भलगढ़ दुर्ग को कुभलमेर दुर्ग, मछीदरपुर दुर्ग, बैरों का दुर्ग, मेवाड़ के राजाओं का शरण स्थली भी कहा जाता     है।
  • कुम्भलगढ़ दुर्ग की प्राचीर भारत में सभी दुर्ग़ों की प्राचीर से लम्बी है। इसकी प्राचीर 36 किमी. लम्बी है। अतः इसे भारत की मीनार भी कहते हैं। इसकी प्राचीर पर एक साथ चार घोड़े दौड़ाए जा सकते हैं।
  • कुम्भलगढ़ दुर्ग के लिए अबुल-फजल ने कहा है कि, “यह दुर्ग इतनी बुलन्दी पर बना है कि नीचे से ऊपर देखने पर सिर पर रखी पगड़ी गिर जाती है।
  • कर्नल टॉड ने कुम्भलगढ़ दुर्ग को “एस्ट्रुकन” दुर्ग की संज्ञा दी है।
  • कुम्भलगढ़ दुर्ग में पाँच द्वार हैं-
  1. ओरठपोल 2. हल्लापोल 3. हनुमानपोल 4. विजयपोल 5. रामपोल
  • कुम्भलगढ़ दुर्ग में सबसे ऊँचाई पर बना एक छोटा दुर्ग कटारगढ़ है। इस कटारगढ़ दुर्ग को मेवाड़ की आँख कहते हैं।
  • कटारगढ़ दुर्ग कुम्भा का निवास स्थान था।
  • कुम्भलगढ़ दुर्ग में 1537 ई. में उदयसिंह का राज्याभिषेक हुआ।
  • मेवाड़ प्रजामण्डल के संस्थापक माणिक्यलाल वर्मा (मेवाड़ का गांधी) को प्रजामण्डल के समय कुम्भलगढ़ दुर्ग ही नजरबंद करके रखा गया था।
  • हल्दीघाटी युद्ध (1576 ई.) के बाद 1578 ई. में महाराणा प्रताप ने कुम्भलगढ़ दुर्ग का अपनी राजधानी बनाया तथा यहीं महाराणा प्रताप का 1578 ई. में दूसरा औपचारिक रूप से राज्याभिषेक हुआ।

नोट – कटारगढ़ दुर्ग में 9 मई, 1540 को महाराणा प्रताप का जन्म हुआ।

  • कुम्भा ने अचलगढ़ दुर्ग (सिरोही), बसंतगढ़ (सिरोही), भीलों की सुरक्षा हेतु भोमट दुर्ग (सिरोही) तथा बैराठ दुर्ग (बंदनौर, भीलवाड़ा) का निर्माण करवाया।
  • रायमल – रायमल के तीन पुत्र थे- (i) जयमल (ii) पृथ्वीराज (iii) राणासांगा।
  1. जयमल – बूंदी के सूरजन हाड़ा की पुत्री तारा से विवाह किया (टोडा टोंक को नहीं जीत सका) तो सुरजन हाड़ा ने इसे मरवा दिया।
  2. पृथ्वीराज – तेज गति से घोड़ा चलाने के कारण इसे उड़ना राजकुमार कहते हैं। इसने टोडा टोंक को जीता तो सुरजन हाड़ा की पुत्री तारा से विवाह किया।

नोट – इसने अपनी पत्नी तारा के नाम पर अजयमेरू दुर्ग का नाम तारागढ़ रखा।

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