अन्य वंश
(हाड़ा, झाला, भाटी, जाट, यदुवंशी, वागड़ के गुहिल)
अलवर राज्य का इतिहास
- 11वीं सदी में अलवर का क्षेत्र (मेवात) अजमेर के चौहानों के अधीन था। पृथ्वीराज चौहान की पराजय (1192 ई.) के बाद मेवाती स्वतंत्र हो गये। 1527 ई. में खानवा के युद्ध के बाद यह क्षेत्र मुगल साम्राज्य का अंग हो गया।
- बाद में यह जयपुर राज्य का अंग हो गया। सन् 1671 में जयपुर नरेश मिर्जा राजा जयसिंह ने मौजमाबाद के कछवाह सामंत कल्याणसिंह नरुका को माचेड़ी की रियासत प्रदान की। 1775 ई. में प्रतापसिंह ने भरतपुर राज्य से अलवर छीनकर उसे अपनी राजधानी बनाया। तभी से यह अलवर राज्य बन गया।
- 1803 ई .में राव राजा बख्तावर सिंह ने ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि कर ली। सन् 1815 में यहाँ के शासक बख्तावर सिंह की मृत्यु के बाद उसके दो उत्तराधिकारी (विनयसिंह व बख्तावरसिंह) एक साथ गद्दी पर बैठे तथा दोनों अल्पवयस्क राजा बराबर के शासक थे।
- कम्पनी सरकार ने भी दोनों को बराबर का शासक होने की मान्यता दे दी। परन्तु बाद में विनयसिंह (बन्नेसिंह) के दबाव से बख्तावरसिंह को कुछ परगनों की जागीर देकर अलवर के शासक पद से हटा दिया गया।
- 1857 की क्रांति के समय विनयसिंह ही अलवर का शासक था। यहाँ के परवर्ती शासक महाराज जयसिंह ने नरेन्द्र मण्डल के सदस्य के रूप में गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया। नरेन्द्र मंडल को यह नाम महाराजा जयसिंह ने ही दिया था।
- अलवर नरेश जयसिंह को उनकी सुधारवादी नीतियों के कारण अंग्रेजी सरकार ने 1933 ई. में तिजारा दंगों के बाद पद से हटाकर राज्य से ही निष्कासित कर दिया था। वे यूरोप चले गए, वहीं पेरिस में सन् 1937 में उनका देहान्त हुआ।
- 1938 ई. में अलवर में प्रजामण्डल की स्थापना हुई। देश स्वतंत्र होने के बाद अलवर का मत्स्य संघ में विलय हो गया जो मार्च, 1949 में राजस्थान में शामिल हो गया।
कोटा राज्य का इतिहास
- कोटा प्रारम्भ में बून्दी रियासत का ही एक भाग था। यहाँ हाड़ा चौहानों का शासन था। शाहजहाँ के समय 1631 ई. में बून्दी नरेश राव रतनसिंह के पुत्र माधोसिंह को कोटा का पृथक् राज्य देकर उसे बून्दी से स्वतंत्र कर दिया। तभी से कोटा स्वतंत्र राज्य के रूप में अस्तित्व में आया।
- कोटा पूर्व में कोटिया भील के नियंत्रण में था, जिसे बून्दी के चौहान वंश के संस्थापक देवा के पौत्र जैत्रसिंह ने मारकर अपने अधिकार में कर लिया।
- कोटिया भील के कारण इसका नाम कोटा पड़ा। माधोसिंह के बाद उसका पुत्र यहाँ का शासक बना जो औरंगजेब के विरूद्ध धरमत के उत्तराधिकार युद्ध में मारा गया।
झाला जालिमसिंह (1769-1823 ई.)
- कोटा का मुख्य प्रशासक एवं फौजदार था। वह बड़ा कूटनीतिज्ञ एवं कुशल प्रशासक था। मराठों, अंग्रेजों एवं पिंडारियों से अच्छे संबंध होने के कारण कोटा इनसे बचा रहा।
- दिसम्बर, 1817 ई. में यहाँ के फौजदार जालिमसिंह झाला ने कोटा राज्य की ओर से ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि कर ली। रामसिंह के समय सन् 1838 ई. में महारावल झाला मदनसिंह जो कि कोटा का दीवान एवं फौजदार था तथा झाला जालिमसिंह का पौत्र था, को कोटा से अलग कर ‘झालावाड़‘ का स्वतंत्र राज्य दे दिया गया।
- इस प्रकार 1838 ई. में झालावाड़ एक स्वतंत्र रियासत बनी। यह राजस्थान में अंग्रेजों द्वारा बनायी गई आखिरी रियासत थी। इसकी राजधानी झालरापाटन बनाई गई।
- 1947 में देश स्वतंत्र होने के बाद मार्च, 1948 में कोटा राजस्थान संघ में विलय हो गया और कोटा महाराव भीमसिंह इसके राजप्रमुख बने एवं कोटा राजधानी। बाद में इसका विलय वर्तमान राजस्थान में हो गया।
भरतपुर राज्य का इतिहास
- राजस्थान के पूर्वी भाग-भरतपुर, धौलपुर, डीग आदि क्षेत्रों पर जाट वंश का शासन था। यहाँ जाट शक्ति का उदय औरंगजेब के शासन काल से हुआ था।
- धीरे-धीरे जाट शक्ति संगठित होती गई और औरंगजेब की मृत्यु के आसपास जाट सरदार चूड़ामन ने थून में किला बनाकर अपना राज्य स्थापित कर लिया था।
- चूड़ामन के बाद बदनसिंह को जयपुर नरेश सवाई जयसिंह ने डीग की जागीर दी एवं ‘ब्रजराज‘ की उपाधि प्रदान की।
- बदनसिंह के पुत्र सूरजमल ने सोधर के निकट दुर्ग का निर्माण करवाया जो बाद में भरतपुर केशव दुर्ग के नाम से प्रसिद्ध हुआ। बदनसिंह ने उसे अपनी राजधानी बनाया। इसने जीते जी अपने पुत्र सूरजमल को शासन की बागडोर सौंप दी।
- सूरजमल ने डीग के महलों का निर्माण करवाया। सूरजमल ने 12 जून, 1761 ई. को आगरे के किले पर अधिकार कर लिया। वह 1763 ई. में नजीब खाँ रोहिला के विरूद्ध हुए युद्ध में मारा गया।
- उसके बाद उसका पुत्र जवाहरसिंह भरतपुर का राजा बना। इसने विदेशी लड़ाकों की एक पेशेवर सेना तैयार की। 29 सितम्बर, 1803 ई. में यहाँ के शासक रणजीतसिंह ने अंग्रेजों से सहायक संधि कर ली। स्वतंत्रता के बाद भरतपुर का मत्स्य संघ में विलय हुआ जो 1949 में राजस्थान में शामिल हो गया।
जैसलमेर राज्य का इतिहास
- जैसलमेर में भाटी वंश का शासन था जो स्वयं को चन्द्रवंशी यादव एवं श्रीकृष्ण के वंशज मानते हैं। यादवों के ही एक वंशज भट्टी ने 285 ई. में भटनेर (हनुमानगढ़) के किले का निर्माण कर वहाँ अपना राज्य स्थापित किया। इसके वंशज भाटी कहलाने लगे।
- भट्टी के वंशज मंगलराव को गजनी के शासक ढुण्डी द्वारा परास्त होने के कारण जैसलमेर क्षेत्र में आना पड़ा।
- उसने तन्नौट में भाटी वंश की दूसरी राजधानी स्थापित की। बाद में इसी वंश के शासक देवराज भाटी ने लोद्रवा को पँवार शासकों से छीनकर तन्नौट के स्थान पर अपनी नई राजधानी बनाई 1155 ई. में रावल जैसलदेव भाटी ने जैसलमेर दुर्ग का निर्माण करवाया तथा अपनी राजधानी जैसलमेर स्थानान्तरित की। यहाँ के परवर्ती शासक हरराज ने अकबर के नागौर दरबार में मुगल अधीनता स्वीकार कर अपनी पुत्री का विवाह अकबर से किया।
- औरंगजेब के समय यहाँ का शासन महारावल अमरसिंह के हाथों में था जिन्होंने ‘अमरकास‘ नाला बनाकर सिंधु नदी का पानी अपने राज्य में लाया।
- 1818 ई. में यहाँ के शासक मूलराज ने ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि कर राज्य की सुरक्षा का जिम्मा अंग्रेजों को दे दिया।
- 30 मार्च, 1949 ई. को जैसलमेर रियासत का राजस्थान में विलय हो गया। यहाँ के अंतिम शासक जवाहरसिंह के काल में राजा की सबसे दुर्भाग्यपूर्ण घटिना घटित हुई, जिसमें यहाँ के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी सागरमल गोपा को जेल में अमानवीय यातनाएँ देकर 3 अप्रेल, 1946 को जलाकर मार डाला गया।
करौली का इतिहास
- यादवों का अन्य राज्य करौली में था। इस रियासत का कुछ भाग मत्स्य जनपद में तथा कुछ भाग सूरसेन जनपद में आता था।
- करौली में यदु वंश के शासन की स्थापना विजयपाल यादव द्वारा 1040 ई. में की गई। यहाँ के शासक तिमनपाल ने तिमनगढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया। मुहम्मद गौरी ने यहाँ के शासक कुँवरपाल को हरा तिमनगढ़ दुर्ग पर कब्जा कर लिया था।
- 1327 ई. में अर्जुनपाल यादव ने मुस्लिमों से छीनकर यहाँ पुनः यादवों का शासन स्थापित किया। उसने 1348 ई. में कल्याणपुर नगर बसाया जो अब करौली के नाम से जाना जाता है।
- 1650 ई. में धर्मपाल-द्वितीय ने करौली को अपनी राजधानी बनाया। 1817 ई. में करौली नरेश ने ब्रिटिश सरकार से संधि कर ली तथा करौली अंग्रेजों के संरक्षण में आ गया।
- सन् 1857 के स्वतंत्रता आन्दोलन में कोटा नरेश को स्वतंत्रता सेनानियों के कब्जे से मुक्त कराने हेतु करौली राज्य की सेना भेजी गई थी।
- स्वतंत्रता के बाद करौली रियासत मत्स्य संघ में मिल गई जो अंततः राजस्थान का हिस्सा बनी। उसके बाद करौली को सवाईमाधोपुर जिले में शामिल किया गया। 19 जुलाई, 1997 को करौली पृथक् जिला (32वाँ) बना।