- लोहागढ़ (भरतपुर)
- भरतपुर राजस्थान का प्रवेशद्वार है। पूर्वी सीमान्त का प्रहरी यह भरतपुर दुर्ग लोहागढ़ के नाम से प्रसिद्ध है।
- भरतपुर के यशस्वी शासक महाराजा सूरजमल द्वारा निर्मित इस किले ने जहाँ एक और शक्तिशाली मुस्लिम आक्रान्ताओं के दाँत खट्टे किये तो दूसरी ओर आधुनिक शस्त्रों से सुसज्जित अंग्रेजी सेना के भी छक्के छुड़ा दिये।
- अंग्रेज सेनापति लार्ड लेक को सन् 1805 में भरतपुर में आकर मान मर्दित होना पड़ा जैसाकि इस कथन से ज्ञापित है – “भरतपुर में लार्ड लेक का सारा मान-सम्मान मिट्टी में मिल गया था।”
- इस दुर्ग के बारे में यह उक्ति प्रसिद्ध है –
दुर्ग भरतपुर अडग जिमि, हिम गिरि की चट्टान।
सूरजमल के तेज को, अब लौ करत बखान।।
- यह दुर्ग एक ऐसा दुर्ग है जिसकी बाहरी प्राचीर चौड़ी और मिट्टी की बनी होने से तोप के गोलों की मार का इस पर कोई असर नही हुआ है, जिसके फलस्वरूप यह दुर्ग शत्रु के लिए अभेद्य बना रहा।
- महाराजा सूरजमल द्वारा संस्थापित इस दुर्ग का निर्माण 1733 ई. में प्रारम्भ हुआ। जिस स्थान पर किले की नींव रखी गयी, वह खेमकरण जाट की एक कच्ची गढी थी, जो चौबुर्जा कहलाती थी। इसको पूर्ण तैयार होने में 8 वर्ष लगे जब यह तैयार हो गया तो यह हिन्दुस्तान का सबसे अजेय किला माना जाता था। विमान के आविष्कार से पूर्व इसे जीतना प्रायः असम्भव था।
- दुर्ग स्थापत्य के अनुसार इस किले के चारों ओर भी एक प्रशस्त परिखा (खाई) है जिसमें मोतीझील से सुजानगंगा नहर द्वारा पानी लाया गया है।
- दुर्ग का उत्तरी द्वार अष्टधातु दरवाजा तथा दक्षिणी द्वार लोहिया दरवाजा कहलाता है। अष्टधातु का दरवाजा महाराजा जवाहर सिंह 1765 ई. में मुगलों के शाही खजाने को लूटने के साथ ऐतिहासिक लाल किले से उतार कर लाए थे।
- किले की प्रमुख आठ बुर्जो में सबसे प्रमुख जवाहर बुर्ज है जो महाराजा जवाहरसिंह की दिल्ली विजय के स्मारक के रूप में है।
- इस दुर्ग पर छोटे-छोटे कई आक्रमण हुए परन्तु सबसे जोरदार आक्रमण अंग्रेजों ने 1805 ई. में किया। भरतपुर के शासक रणजीतसिंह ने अंग्रेजो के शत्रु जसवन्तराव होल्कर को अपने यहाँ शरण दी जिससे उसे अंग्रेजो का कोपभाजनबनना पड़ा। अंग्रेजों की लाख कोशिश के बाद भी वे इस किले को जीत नही पाये तब उन्होंने विवश हो महाराजा रणजीत सिंह से संधि कर ली। उससे सम्बन्धित एक लोक गीत प्रसिद्ध है –
‘गोरा हट जा रे, राज भरतपुर को’
- महाराजा रणजीतसिंह की मृत्यु के बाद भरतपुर राजघराने की आन्तरिक कलह का लाभ उठाकर उन्होंने विशाल सेना की सहायता से जनवरी 1826 ई. में जोरदार आक्रमण के बाद यह दुर्ग अंग्रेजों के अधिकार में आया।
- किले में राजाओं द्वारा बनवाये प्रमुख महल कोठी खास, महल खास रानी किशोरी और रानी लक्ष्मी के महल प्रमुख है। महलों के अलावा, गंगा मंदिर, राजेश्वरी देवी, लक्ष्मण मंदिर, बिहारीजी का मंदिर तथा जामा मास्जिद का शिल्पदेखने योग्य है।
- भरतपुर के लोगों को आज भी अपने दुर्ग की अजेयता और वीरों की शूरता पर नाज है, तभी तो उनकी प्रशंसा में आज भी लोग अक्सर गुनगुनाते है –
यह भरपुर दुर्ग है, दुस्सह दुर्जय भयंकर
जहै जट्टन के छोहरा, दिय सुभट्टन पछार
आठ फिरंगी नौ गोरा, लडै जाट के दो छोटा।।
- इस दुर्ग के बनने से पूर्व इस स्थल पर बाणगंगा, रूपारेल एवं गम्भीरी नदियों के पानी का संगम होता था।
- गढ़-गागरोन
- गागरोण का किला दक्षिण पूर्वी राजस्थान के सबसे प्राचीन और विकट दुर्गों में से एक है। यह झालावाड़ से 4 किमी. की दूरी पर अवस्थित है।
- यह प्रसिद्ध दुर्ग अरावली पर्वतमाला की एक सुदृढ़चट्टान पर कालीसिन्ध और आहू नदियों के संगम-स्थल पर स्थित है तथा तीन तरफ से नदियों से घिरा होने के कारण हमारे प्राचीन शास्त्रों में वर्णित जल दुर्ग की कोटि में आता है।
- गागरोण का भव्य दुर्ग खींची चौहानों का प्रमुख स्थान रहा है जिसके साथ योद्धाओं के शौर्य और पराक्रम तथा वीरांगनाओं के जौहर की गाथा जुड़ी हुई है।
- ऐतिहासिक परम्परा के अनुसार गागरोण पर पहले डोड (परमार) राजपूतों का अधिकार था, जिन्होंने इस दुर्ग का निर्माण करवाया। उनके नाम पर यह डोडगढ़ या धूलरगढ़ कहलाया। उसके बाद यह खींची चौहानों के अधिकार में आ गया।
- ‘चौहान कुल कल्पद्रुम’ के अनुसार गागरोण के खींची राजवंश का संस्थापक देवनसिंह (उर्फ धारु) था, जिसने बीजलदेव नामक डोड शासक को मारकर धूलरगढ़ पर अधिकार कर लिया तथा उसका नाम गागरोण रखा।
- यहां के शासक जैतसिंह के शासनकाल में खुरासन के प्रसिद्ध सूफी संत हमीदुद्दीन चिश्ती गागरोण आये जिनकी समाधि यहां विद्यमान है। ये सूफी संत ‘मिट्ठे साहब‘ के नाम से लोक में पूजे जाते हैं।
- गागरोण में जैतसिंह के तीन पीढ़ी बाद पीपाराव (प्रताप सिंह) एक भक्तिपरायण नरेश हुए। वे दिल्ली के सुल्तान फिरोजशाह तुगलक के समकालीन थे। अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में पीपाजी ने राज्यवैभव त्यागकर प्रसिद्ध संत रामानन्द का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया था। यहीं पर पीपाजी की छतरी बनी हुई है।
- गागरोण का सर्वाधिक ख्यातनाम और पराक्रमी शासक भोज का पुत्र अचलदास हुआ, जिसके शासनकाल में गागरोण का पहला साका हुआ। यह अचलदास मेवाड़ के महाराणा मोकल का दामाद था। इनके शासनकाल में सन् 1423 ई. में मांडू के सुल्तान अलपखाँ गोरी (उर्फ होशंगशाह) ने एक विशाल सेना के साथ गागरोण पर आक्रमण कर किले को घेर लिया। तब भीषण संग्राम हुआ जिसमें अचलदास लड़ते हुए वीर गति को प्राप्त हुए तथा लालां मेवाड़ी ने कई ललनाओं के साथ जौहर किया। इसका वर्णन समकालीन कवि शिवदास गाडण ने अपनी कृति ‘अचलदास खींची री वचनिका‘ में किया है।
- गागरोण दुर्ग को अधिकृत करने के बाद होशंगशाह ने इसे अपने बड़े शहजादे गजनीखां को सौंप दिया।
- सन् 1444 ई. में महमूद खिलजी ने गागरोण पर एक विशाल सेना के साथ जोरदार आक्रमण किया। तब गागरोण का दूसरा साका हुआ। उस समय यहां का राजा वीर पाल्हणसी था। विजयी सुल्तान ने इस दुर्ग में एक और कोट का निर्माण करवाया तथा उसका नाम ‘मुस्तफाबाद‘ रखा।
- सन् 1567 ई. में अपने चित्तौड़ अभियान के लिए जाते समय बादशाह अकबर कुछ दिनों तक यहां ठहरे थे। जहां अबुल फजल के बड़े भाई फैजी ने उससे भेंट की थी।
- अकबर ने गागरोण दुर्ग बीकानेर के राजा कल्याणमल के पुत्र पृथ्वीराज को जागीर में दे दिया जो भक्त, कवि और योद्धा थे।
- किले के भीतर राव दुर्सनसाल ने भगवान मधुसूदन का भव्य मंदिर बनवाया। कोटा रियासत के सेनापति जालिमसिंह झाला ने गागरोण के किले में विशाल परकोटे का निर्माण करवाया, उन्हीं के नाम पर इसका नाम ‘जालिमकोट‘ रखा गया।
- तिहरे परकोटे से सुरक्षित गागरोण दुर्ग के प्रवेश द्वारों में सूरजपोल, भैरवपोल तथा गणेशपोल प्रमुख है। इसकी विशाल सुदृढ़ बुर्ज़ों में रामबुर्ज और ध्वजबुर्ज उल्लेखनीय है।
- गागरोण के किले के भीतर शत्रु पर पत्थरों की वर्षा करने वाला विशाल यंत्र आज भी विद्यमान है।
- इस किले के पार्श्व में कालीसिंध के तट पर एक ऊंची पहाड़ी को ‘गीध कराई‘ कहते हैं। जनश्रुति है कि पुराने समय में जब किसी राजनैतिक बन्दी को मृत्युदण्ड देना होता था तब उसे इस पहाड़ी पर से नीचे गिरा दिया जाता था।
- आहू और कालीसिंध नदियों का संगमस्थल स्थानीय भाषा में ‘सामेलजी‘ के नाम से विख्यात है तथा पवित्र माना जाता है।
- जूनागढ़ (बीकानेर)
- उत्तरी राजस्थान में मरुस्थल से घिरा यह किला धान्वन दुर्ग की कोटि में आता है। लाल पत्थरों से बने इस भव्य किले का निर्माण बीकानेर के प्रतापी शासक रायसिंह ने करवाया था जो मुगल बादशाह अकबर और फिर जहांगीर का प्रमुख एवं विश्वस्त मनसबदार था।
- पुराने गढ़ की नींव तो पहले बीकानेर के यशस्वी संस्थापक राव बीकाजी ने वि. संवत् 1542 (1485 ई.) में रखी थी। उनके द्वारा निर्मित प्राचीन किला नगर प्राचीर के भीतर दक्षिण पश्चिम में एक ऊंची चट्टान पर विद्यमान है जो ‘बीकाजी की टेकरी‘ कहलाती है।
- दयालदास की ख्यात में लिखा है कि नये गढ़ की नींव मौजुदा पुराने गढ़ के स्थान पर ही भरी गयी थी, अतः संभव है इसी कारण इसे जूनागढ़ कहा गया।
- बीकानेर के किले के प्रवेश द्वार पर उत्कीर्ण दुर्ग निर्माता महाराजा रायसिंह की प्रशस्ति के अनुसार इस किले की नींव विक्रम संवत् 1645 की फागुन सुदी 12 को रखी गयी।
- बीकानेर नरेश जोरावरसिंह के समय जोधपुर के राजा अभयसिंह ने बीकानेर पर आक्रमण करने की योजना बनाई तब जोरावरसिंह ने जयपुर नरेश सवाई जयसिंह को सहायता हेतु पत्र लिखा-
अभो ग्राह बीकाण गज, मारु समद अथाह
गरुड़ छाँड़ गोविन्द ज्यूँ, सहाय करो जयशाह
- उसी संकट के समय महाराजा जोरावरसिंह ने एक सफेद चील को देखकर अपनी कुलदेवी करणीजी को बड़े मार्मिक शब्दों में याद किया-
डाढ़ाली डोकर थई, का तूँ गई विदेस।
खून बिना क्यों खोसजे, निज बीका रो देस।।
- जूनागढ़ दुर्ग चतुष्कोण या चतुर्भुजाकृति का है। यह दुर्ग ‘जमीन का जेवर‘ उपनाम से भी प्रसिद्ध है।
- दुर्ग के भीतर जाने हेतु दो प्रमुख प्रवेश द्वार हैं- कर्णपोल, चाँदपोल किले के निर्माण के समय उसका विस्तार सूरजपोल तक ही था। इसी पोल पर किले के निर्माता रायसिंह की प्रशस्ति उत्कीर्ण है।
- इसी दुर्ग के अन्दर सूरजपोल में 1567 ई. के चित्तौड़ के साके के समय वीरगति को पाने वाले दो इतिहास प्रसिद्ध वीरों जयमल मेड़तिया और उनके बहनोई आमेट के रावत पत्ता सिसोदिया की गजारुढ़ मूर्तियाँ स्थापित है। ऐसी ही मूर्तियां बादशाह अकबर ने आगरा के किले के प्रवेश द्वार पर लगवाई।
- जूनागढ़ में बने प्रमुख महल- रायसिंह का चौबारा, फूल महल, चन्द्र महल, गज मंदिर, अनूप महल, रतन निवास, रंग महल, कर्ण महल, दलेल निवास, छत्र महल, लाल निवास, सरदार निवास, गंगा निवास, चीनी बुर्ज, सुनहरी बुर्ज, विक्रम विलास, सूरत निवास, मोती महल, कुंवरपदा और जालीदार बारहदरियाँ प्रमुख एवं उल्लेखनीय है।
- बीकानेर के राजाओं का राज तिलक अनूप महल में होता था। दुर्ग के भीतर जलापूर्ति के लिए रामसर और रानीसर दो अथाह जलराशि वाले कुएं उल्लेखनीय हैं।
- जूनागढ़ की एक प्रमुख विशेषता यह है कि इसके प्रांगण में दुर्लभ प्राचीन वस्तुओं, शस्त्रास्त्रों, देव प्रतिमाओं, विविध प्रकार के पागों तथा फारसी व संस्कृत में लिखे गये हस्तलिखित ग्रन्थों का बहुत समृद्ध संग्रहालय है।