- रणथम्भौर दुर्ग
- हम्मीर चौहान की आन, बान, और शान का प्रतीक रणथम्भौर राजस्थान का एक प्राचीन एवं प्रमुख गिरि दुर्ग है जिसकी निराली शान और पहचान है।
- बीहड़ वन और दुर्गम घाटियों के मध्य अवस्थित यह दुर्ग अपनी नैसर्गिक सुरक्षा व्यवस्था, विशिष्ट सामरिक स्थिति और सुदृढ़ संरचना के कारण एक अजेय दुर्ग समझा जाता है।
- यह सवाईमाधोपुर से लगभग 6 मील दूर रणथम्भौर अरावली पर्वत शृंखलाओं से घिरा एक विकट दुर्ग है।
- रणथम्भौर का वास्तविक नाम रन्तःपुर है अर्थात् ‘रण की घाटी में स्थित नगर’। ‘रण’ उस पहाड़ी का नाम है जो किले की पहाड़ी से कुछ नीचे है एवं थंभ (स्तम्भ) उसका, जिस पर किला बना है। इसी कारण इसका नाम रणस्तम्भपुर (रण+स्तम्भ+पुर) हो गया।
- यह दुर्ग चारों ओर से पहाड़ियों से घिरा हुआ है। दुर्ग की इसी दुर्गम भौगोलिक स्थिति को लक्ष्य कर अबुल-फजल ने लिखा है – “यह दुर्ग पहाड़ी प्रदेश के बीच में है। इसीलिए लोग कहते है कि और दुर्ग नंगे है परन्तु यह बख्तरबन्द है।”
- रणथम्भौर दुर्ग तक पहुँचने का मार्ग संकरी व तंग घाटी से होकर सर्पिलाकार में आगे जाता है।
- किले के प्रमुख प्रवेश द्वार – नौलखा दरवाजा, हाथीपोल, गणेशपोल, सूरजपोल और त्रिपोलिया आदि है। ‘त्रिपोलिया’ को अँधेरी दरवाजा कहते है।
- दुर्ग के अन्दर प्रमुख महल – हम्मीर महल, रानी महल, हम्मीर की कचहरी, सुपारी महल, बादल बादल, जौरां-भौरां, 32 खम्भों की छतरी, रनिहाड तालाब, पीर सदरूद्दीन की दरगाह, लक्ष्मीनारायण मंदिर तथा पूरे देश में प्रसिद्ध गणेश जी का मंदिर।
- इतिहासकारों की मान्यता है कि इस दुर्ग का निर्माण आठवीं शताब्दी ई. के लगभग अजमेर के चौहान शासकों द्वारा कराया गया।
- यहाँ के वीर और पराक्रमी शासक राव हम्मीर देव चौहान ने सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के विद्रोही सेनापति मीर मुहम्मदशाह को अपने यहाँ शरण प्रदान की जिसे दण्डित करने हेतु अलाउद्दीन ने 1301 ई. में रणथम्भौर पर आक्रमण कर दिया, इस समय इतिहासकार अमीर खुसरो उसके साथ था इस युद्ध में हम्मीर चौहान लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हो गया। दुर्ग की ललनाओं ने रानी रंगदेवी के साथ जौहर का अनुष्ठान किया। अलाउद्दीन के साथ आया इतिहासकार अमीर खुसरों युद्ध के घटनाक्रम का वर्णन करते हुए लिखता है, कि सुल्तान ने किले के भीतर मार करने के लिए पाशेब (विशेष प्रकार के चबूतरे) तथा गरगच तैयार करवाये और मगरबी (ज्वलनशील पदार्थ फेंकने का यन्त्र) व अर्रादा (पत्थरों की वर्षा करने वाला यन्त्र) आदि की सहायता से आक्रमण किया। उधर हम्मीरदेव के सैनिकों ने दुर्ग के भीतर से अग्निबाण चलाये तथा मंजनीक व ढेकुली यन्त्रों द्वारा अलाउद्दीन के सैनिकों पर विशाल पत्थरों के गोले बरसाये। दुर्गस्थ जलाशयों से तेज बहाव के साथ पानी छोड़ा गया, जिससे खिलजी सेना को भारी क्षति हुई। इस तरह रणथम्भौर का घेरा लगभग एक वर्ष तक चला। अन्ततः अलाउद्दीन ने छल और कूटनीति का आश्रय लिया तथा हम्मीर के दो मंत्रियों रतिपाल और रणमल को बूंदी का परगना इनायत करने का प्रलोभन देकर अपनी ओर मिला लिया। इस विश्वासघात के फलस्वरूप हम्मीर को पराजय का मुख देखना पड़ा।
- हम्मीर की आन के सम्बन्ध में कहा गया यह दोहा लोक में आज भी प्रसिद्ध है –
सिंघ गमन, सत्पुरुष वचन, कदली फलै इक बार।
तिरिया तेल, हम्मीर हठ, चढै न दूजी बार।।
- हम्मीर के अद्भुत त्याग और बलिदान का अनेक कवियों ने अपना चरित्रनायक बनाकर यशोगान किया है – नयचन्द्र सूरी कृत हम्मीर महाकाव्य, व्यास भाँडउ रचित हम्मीरायण, जोधराज कृत हम्मीर रासो तथा चन्द्रशेखर कृत हम्मीर हठ आदि।
- रणथम्भौर के अधिपति सुरजन हाडा ने अकबर की अधीनता स्वीकार करके दुर्ग उसे सौंप दिया। उस समय अकबर ने यहाँ पर एक शाही टकसाल स्थापित की।
- अकबर के शासनकाल में रणथम्भौर दुर्ग जगन्नाथ कच्छवाहा की जागीर में रहा। शाहजहाँ के समय यहाँ का अधिपति विट्ठलदास गौड़ था।
- मुगलकाल में रणथम्भौर दुर्ग का शाही कारागार के रूप में भी उपयोग किया गया।
- जवरा-भंवरा – यह अनाज रखने का गोदाम था।
- दुर्ग का मुख्य आकर्षण हम्मीर महल जो करौली के लाल पत्थर का बना है।
- 32 खंभो की छतरी – हम्मीर देव ने अपने पिता जयसिंह के 32 वर्षों के शासन के प्रतीक में लाल पत्थर की 32 खंभों की छतरी बनवाई थी।
- राजस्थान में सर्वप्रथम वीरांगनाओं के जौहर की शुरुआत इसी दुर्ग से हुई। (सन् 1301 ई. में)
- रणथम्भौर दुर्ग से सटे 400 वर्ग किमी. क्षेत्र में राष्ट्रीय बाघ परियोजना का कार्य फैला है। यहां सन् 1973 में वन्य जीव संरक्षण योजना के तहत राष्ट्रीय बाघ संरक्षण योजना शुरू की गई और 1980 ई. में इसे अभयारण्य का रूप दिया गया।
- रणथम्भौर दुर्ग भावनात्मक एकता की अनुपम स्थली है। यहाँ के सुपारी महल में एक स्थान पर मंदिर, मस्जिद और गिरिजाघर हैं।
- हर वर्ष भाद्रपद शुक्ल गणेश चतुर्थी को यहाँ के त्रिनेत्र गणेश मंदिर में बड़ा मेला भरता है।
- यहां के गणेश मंदिर के प्रति आस्था के सम्बन्ध में प्रचलित दोहा-
‘रणत भंवर के लाड़ला, गौरी पुत्र गणेश’