- बयाना दुर्ग (विजयमंदिर गढ़), भरतपुर
- पूर्वी राजस्थान के पर्वतीय दुर्ग़ों में बयाना के किले का विशेष महत्त्व है। यह भरतपुर जिले में स्थित है।
- इस दुर्ग का निर्माता महाराजा विजयपाल मथुरा के यादव-राजवंश से था। मैदान में स्थित अपनी राजधानी मथुरा को मुस्लिम आक्रमणों से असुरक्षित जान उसने निकट की मानी पहाड़ी पर 1040 ई. के लगभग एक सुदृढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया तथा उसने अपनी राजधानी बनाया। अपने निर्माता के नाम पर यह किला विजय मंदिर गढ़ कहलाया।
- बयाना के इस प्राचीन दुर्ग पर समय-समय पर विभिन्न राजवंशों के अलावा विविध मुस्लिम वंशों- गौरी, गुलाम, तुगलक, लोदी, अफगान तथा मुगलों का अधिकार रहा।
- बयाना दुर्ग के निर्माता महाराजा विजयपाल ने लगभग 53 वर्ष़ों तक शासन किया। ये शक्तिशाली शासक थे जिन्हें शिलालेखों में ‘महाराजाधिराज परम भट्टारक‘ के विरूद्ध से अभिहित किया गया है।
- करौली की ख्यात तथा जनश्रुति के अनुसार महाराजा विजयपाल ने गजनी की तरफ से होने वाले मुस्लिम आक्रमणों का लम्बे अरसे तक सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया परन्तु निरन्तर होने वाले आक्रमणों के समक्ष अपने को असहाय पा उसने शिव मंदिर में अपना मस्तक काटकर देवता को चढ़ा दिया।
- विजयपाल के ज्येष्ठ पुत्र और उत्तराधिकारी तवनपाल ने बारह वर्ष तक अज्ञातवास में रहने के बाद बयाना से लगभग 22 किमी. दूरी पर एक नया दुर्ग बनाया जो उनके नाम पर तवनगढ़ कहलाया।
- बयाना दुर्ग के भीतर लाल पत्थरों से बनी एक ऊंची लाट या मीनार है जो ‘भीमलाट‘ के नाम से प्रसिद्ध है। इसको स्थापित करने का श्रेय विष्णुवर्द्धन को दिया जाता है। जो प्रसिद्ध गुप्त शासक समुद्रगुप्त का सामन्त था।
- विक्रम संवत् 1012 में रानी चित्रलेखा द्वारा निर्मित ऊषा मंदिर बयाना दुर्ग की एक प्रमुख विशेषता है। यह मंदिर हिन्दू स्थापत्य कला का उत्कृष्ट नमूना है। गुलाम वंश के शासक इल्तुतमिश ने इस मंदिर की प्रतिमा खण्डित कर दी थी।
- तवनगढ़ (त्रिभुवनगढ़), करौली
- समुद्रतल से लगभग 1309 फीट की ऊंचाई पर स्थित इस दुर्ग का निर्माण बयाना के राजवंशीय तहणपाल (तवनपाल) अथवा त्रिभुवनपाल (महाराजा विजयपाल का पुत्र) ने 11वीं शताब्दी ईस्वी के उत्तरार्द्ध में करवाया था।
- निर्माता के नाम पर ही इस दुर्ग का नाम तवनगढ़ तथा किले वाली पहाड़ी त्रिभुवन गिरि कहलाती है।
- इस दुर्ग के बारे में ऐसा उल्लेख भी मिलता है कि मुस्लिम आधिपत्य के बाद इसका नाम इस्लामाबाद कर दिया गया था।
- कविराजा श्यामलदास कृत वीरविनोद में यह उल्लेख है कि- ‘मुसलमानों ने यादवों से बयाना का किला छीन लिया। विजयपाल के 18 बेटे थे। उसका सबसे बड़ा बेटा तवनपाल बारह वर्ष तक पोशीदह रहकर अपनी धाय के मकान पर आया, उसने तवनगढ़ का किला बयाना से लगभग पन्द्रह मील दूर बनाया।‘
- तवनपाल के दो पुत्र थे- धर्मपाल और हरपाल परन्तु उनका उत्तराधिकारी धर्मपाल बना, गृहकलह के कारण महाराजा धर्मपाल ने तवनगढ़ छोड़कर एक नया किला ‘धौलदेहरा‘ (धौलपुर) बनवाया। उसके पुत्र कुंवरपाल (कुमारपाल) ने गोलारी में एक किला बनवाया जिसका नाम कुंवरगढ़ रखा। कुंवरपाल ने ही हरपाल को मारकर तवनगढ़ पर अधिकार किया।
- हसन निजामी द्वारा लिखित ‘ताज-उल-मासिर‘ तथा मिनहाज सिराज कृत ‘तबकाते नासिरी‘ में तवनगढ़ के ऊपर गौरी के अधिकार का उल्लेख हुआ है।
- 14वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में यादववंशीय अर्जुनपाल ने अपने पैतृक राज्य तवनगढ़ पर फिर से अधिकार कर लिया। उसने विक्रम संवत् 1405 (1348 ई.) में कल्याण जी का मंदिर बनवाकर कल्याणपुरी नगर बसाया, जो वर्तमान में करौली कहलाया।
- यह गिरि दुर्ग की श्रेणी में आता है। उन्नत एवं विशाल प्रवेश द्वार तथा ऊंचा परकोटा इसके स्थापत्य की प्रमुख विशेषता है।
- जगनपोल एवं सूर्यपोल दोनों इस दुर्ग के प्रमुख प्रवेश द्वार हैं। समूचा नगर इस किले के भीतर बसा हुआ था।
- सोजत का किला
- सोजत का किला मारवाड़ का सीमावर्ती दुर्ग है, जो जोधपुर से लगभग 110 किमी. पर स्थित है।
- गौड़वाड़ क्षेत्र पर निगरानी रखने तथा मेवाड़ की ओर से किसी भी संभावित आक्रमण का मुकाबला करने के लिए मारवाड़ (जोधपुर) रियासत की सेना का एक सशक्त दल यहां तैनात रहता था।
- सूकड़ी नदी के मुहाने पर बसा सोजत (शुधदंती) एक प्राचीन स्थान है जो लोक में तांबावती (त्रंबावती) नगर के नाम से प्रसिद्ध था। मारवाड़ रा परगना री विगत में इस आशय का उल्लेख मिलता है- सासत्र नाव सुधदंती छै। आगे केहीक दिन त्रंबावती नगरी त्रंबसेन राजा हुतौ तिण राजा री सोझत ……।
- राव जोधा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र नीम्बा को सोजत में नियुक्त किया। सम्भवतः उसने नानी सीरड़ी नामक डूंगरी पर 1460 ई. में सोजत के वर्तमान दुर्ग का निर्माण करवाया।
- जोधपुर ख्यात में राव मालदेव को सोजत किले का निर्माता माना गया है।
- जोधपुर के पराक्रमी शासक राव मालदेव ने सोजत के चारों ओर सुदृढ़ परकोटे का निर्माण करवाया तथा सुरक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ किया।
- बादशाह अकबर ने चन्द्रसेन से सोजत छीनकर राव मालदेव के पुत्र राम को सोजत इनायत किया। उसका बनवाया हुआ रामेलाव तालाब आज भी सोजत के किले के पर्वताचंल में विद्यमान है।
- यह किला एक लघुगिरि दुर्ग है जो अभी भग्न और खण्डित अवस्था में है।
- किले के प्रमुख भवनों में जनानी ड्योढ़ी, दरीखाना, तबेला, सूरजपोल तथा चाँदपोल प्रवेश द्वार हैं।
- कुचामन का किला, नागौर
- कुचामन का किला जागीरी ठिकानों के रूप में प्रसिद्ध रहा है। नागौर जिले की नावां तहसील में स्थित यह ठिकाना जोधपुर रियासत में मेड़तिया राठौड़ों का एक प्रमुख ठिकाना था।
- कुचामन का किला रियासतों के किलों से टक्कर लेता है इसलिए यदि कुचामन के किले को जागीरी किलों का सिरमौर कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसके बारे में लोक में यह उक्ति प्रसिद्ध है-
‘ऐसा किला राणी जाये के पास भले ही हो, ठुकरानी जाये के पास नहीं।‘
- कविराजा बांकीदास ने कुचामन के सामन्त शासकों की स्वामीभक्ति की प्रशंसा करते हुए अपनी ख्यात में लिखा है-
कदीही कियो नह रूसणो कुचामण।
कुचामण साम-ध्रम सदा कीधो।।
- अलवर नरेश बख्तावरसिंह का विवाह 1793 ई. में कुचामन की राजकुमारी से सम्पन्न हुआ था। कुचामन के ठाकुर केसरीसिंह को तत्कालीन ब्रिटिश सरकार द्वारा ‘राय बहादुर‘ का खिताब दिया गया था।
- कुचामन का किला, गिरि दुर्ग का उदाहरण है। प्रचलित लोक मान्यता के अनुसार यहां के पराक्रमी शासक जालिमसिंह ने वनखण्डी नामक महात्मा के आशीर्वाद से कुचामन के किले की नींव रखी।
- इस किले के भवनों में सुनहरी बुर्ज सोने के बारीक व सुन्दर काम के लिए उल्लेखनीय है। यहां पर जल संग्रह हेतु पांच विशाल टांके है जिसमें से पाताल्या हौज और अंधेरया हौज (बंद टांका) प्रमुख है।
- माधोराजपुरा का किला
- माधोराजपुरा जयपुर से लगभग 59 किमी. दक्षिण में दूदू लालसोट जाने वाली सड़क पर अवस्थित है।
- इस दुर्ग से जयपुर के कच्छवाहों की नरूका शाखा के वीरों के शौर्य और पराक्रम के उज्ज्वल प्रसंग जुड़े हुए हैं।
- जयपुर के महाराजा सवाई माधोसिंह प्रथम ने मराठों पर विजय के उपरान्त माधोराजपुरा का कस्बा अपने नाम पर बसाया था।
- जयपुर की अनुकृति पर बसे इस छोटे कस्बे को ‘नंवा शहर‘ भी कहा जाता है।
- माधोराजपुरा के किले के साथ इतिहास की एक गौरव दास्तान जुड़ी हुई है, जयपुर के महाराजा सवाई जयसिंह तृतीय की धाय ‘रूपा बढ़ारण‘ को उसके दरबारी षड़यंत्रों और कुचक्रों की सजा के रूप में इसी किले में नजरबन्द रखा गया था।
- यह किला एक स्थल दुर्ग है जिसके चारों ओर लगभग 20 फीट चौड़ी और 30 फीट गहरी परिखा है। किले के भीतर एक पाताल फोड़ कुआं भी विद्यमान है।
- इस किले के बीचोबीच एक भोमियाजी का स्थान है। जनश्रुति के अनुसार ये भोमिया करणसिंह नरूका है, जो किले की रक्षार्थ किसी युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए थे।
- किले के भीतर एक ऊंचा भग्न महल है जो ‘रानी वाला महल‘ कहलाता है।
- चौंमू का किला (चौमुँहागढ़)
- जयपुर से लगभग 33 किमी. उत्तर में स्थित चौंमू का किला चौंमुँहागढ़ कहलाता है। जिसके चतुर्दिक बसा होने से यह कस्बा चौंमू कहलाया।
- यह किला प्राचीन भारतीय शास्त्रों में वर्णित भूमि दुर्ग की श्रेणी में आता है।
- पंडित हनुमान शर्मा द्वारा लिखित नथावतों का इतिहास के अनुसार ठाकुर कर्णसिंह ने विक्रम संवत् 1652-54 (1595-97 ई) के लगभग वेणीदास नामक एक संत के आशीर्वाद से इस चौंमुँहादुर्ग की नींव रखी।
- ठाकुर मोहनसिंह ने इस दुर्ग की सुदृढ़ प्राचीर तथा किले के चारों तरफ गहरी नहर या परिखा का निर्माण करवाया।
- चौंमू के इस किले को धाराधारगढ़ भी कहते हैं। इस किले को लक्ष्य कर दागे गए तोप के गोले उसे हानि पहुंचाए बिना ऊपर से निकल जाते थे।
- कौटिल्य ने एक अच्छे भूमि दुर्ग के जो लक्षण बताये हैं, वे सब चौंमू के इस किले में विद्यमान है।
- प्रमुख दरवाजों में बजरंग पोल, होली दरवाजा, बावड़ी दरवाजा तथा पीहाला दरवाजा आदि है।
- शाहबाद दुर्ग, बारां
- शाहबाद का दुर्ग हाड़ौती अंचल का एक सुदृढ़ और दुर्भेद्य दुर्ग है। यह बारां से 80 किमी. दूर कोटा-शिवपुरी मार्ग पर एक विशाल और ऊंचे पर्वत शिखर पर स्थित है।
- दुर्ग के नाम पर कस्बे का नाम भी शाहबाद कहलाता है।
- शाहबाद दुर्ग के निर्माण की सही तिथि और इसके निर्माताओं के बारे में प्रामाणिक जानकारी का अभाव है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार इस दुर्ग का निर्माण 9वीं शताब्दी ई. के लगभग परमार शासकों द्वारा कराया गया जिनका उस समय इस क्षेत्र पर अधिकार था।
- दूसरी मान्यता के अनुसार इस दुर्ग के निर्माता चौहान राजा मुकुटमणिदेव था जोकि रणथम्भौर के प्रसिद्ध शासक राव हम्मीर देव चौहान के वंश से था।
- मेवाड़ के महाराणा कुंभा ने मांडू के सुल्तान को पराजित कर शाहबाद दुर्ग को अपने अधिकार में कर लिया था।
- इस दुर्ग का पुनर्निमाण या जीर्णोद्वार संभवतः शेरशाह सूरी के द्वारा करवाया गया था।
- मुगल सम्राट औरंगजेब अपनी दक्षिण यात्रा के दौरान इस दुर्ग का उपयोग विश्राम स्थल के रूप में करता है।
- औरंगजेब के शासनकाल में शाहबाद के मुगल फौजदार मकबूल द्वारा निर्मित ‘जामा मस्जिद‘ मुगल स्थापत्य कला का सुन्दर उदाहरण है। इसकी मीनार लगभग 150 फीट ऊंची है।
- इस दुर्ग पर रखी ‘ नवलबाण‘ तोप दूर तक मार करने के कारण प्रसिद्ध रही।
- दुर्ग के प्रवेश द्वार के दोनों तरफ दो विशाल प्रतिमाएं लगी थी जिन्हें स्थानीय बोलचाल में ‘अललपंख‘ कहा जाता था। अललपंख एक पंखयुक्त हाथी है जोकि अपने चारों पैरों तथा सूंड में पांच छोटे-छोटे हाथी लेकर उड़ता हुआ दिखाया गया है। वर्तमान में ये प्रतिमाएं जिलाधीश कार्यालय में स्थापित है।
- खण्डार का किला
- सवाईमाधोपुर से लगभग 40 किमी. पूर्व में स्थित खण्डार का किला रणथम्भौर के सहायक दुर्ग व उसके पृष्ठरक्षक के रूप में विख्यात है।
- खण्डार किला नैसर्गिक सौन्दर्य का खजाना है, जिसके पूर्व में बनास व पश्चिम में गालण्डी नदियाँ बहती है।
- खण्डार किले में गिरि दुर्ग एवं वन दुर्ग दोनों के गुण विद्यमान है। अपनी आकृति में यह दुर्ग त्रिभुजाकार है।
- किले की प्राचीर के समीप ही एक जैन मंदिर है जहां महावीर स्वामी की पद्मासन मुद्रा में तथा पार्श्वनाथ की आदमकद व खड़ी प्रतिमा तथा अन्य जैन प्रतिमाएं बनी है।
- खण्डार के किले के भीतर बने अन्य भवनों में राजप्रासाद,रानी का महल, चतुर्भुज मंदिर देवी मंदिर तथा सतकुण्डा, लक्ष्मणकुण्ड, बाणकुण्ड, झिरीकुण्ड आदि जलाशय प्रमुख उल्लेखनीय है।
- खण्डार का किला कब बना और इसके निर्माता कौन थे इस बारे में प्रामाणिक जानकारी का अभाव है। रणथम्भौर के यशस्वी शासक राव हम्मीरदेव चौहान के शासनकाल में खण्डार का किला विद्यमान था।
- सन् 1301 में रणथम्भौर के साथ ही खण्डार का किला भी चौहानों के हाथ से निकलकर अलाउद्दीन खिलजी के अधिकार में आ गया।
महल
जयपुर
- आमेर का महल :आमेर की मावठा झील के पास की पहाड़ी पर स्थित, कछवाहा राजा मानसिंह द्वारा 1592 में निर्मित यह महल हिन्दु-मुस्लिम शैली के समन्वित रूप है।
- शीशमहल :‘दीवाने खास‘ नाम से प्रसिद्ध आमेर स्थित जयमन्दिर (मिर्जा राजा जयसिंह द्वारा निर्मित) एवं जस (यश) मंदिर जो चूने और गज मिट्टी से बनी दीवारों और छतों पर जामिया कांच या शीशे के उत्तल टुकड़ों से की गयी सजावट के कारण शीशमहल कहलाते हैं। महाकवि बिहारी ने इन्हें दर्पण धाम कहा है। शीशमहल के दोनों ओर के बरामदों के रोशनदानों में धातु की जालियां काटकर बनाये हुए राधा-कृष्ण-गोपिकाओं में भी रंगीन कांच के टुकड़े लगाकर कलात्मक साज-सज्जा की गयी है।
- सिटी पैलेस (राजमहल) :जयपुर के सिटी पैलेस में स्थित चाँदी के पात्र (विश्व के सबसे बड़े) तथा बीछावत पर बारीक काम (सुई से बना चित्र) विश्व प्रसिद्ध है। यह जयपुर राजपरिवार का निवास स्थान था। सिटी पैलेस में प्रवेश के लिए सात द्वार बने हुए हैं किन्तु सबसे प्रमुख उदयपोल द्वार है जिसे 1900 ई. में महाराजा सवाई माधोसिंह द्वितीय ने बनवाया। इस पूर्वी प्रवेश द्वार को सिरह-ड्योढ़ी कहते हैं। यहाँ स्थित इमारतों में चन्द्रमहल, मुबारक महल, सिलहखाना, दीवाने-आम, दीवाने खास, पोथीखाना विशेष प्रसिद्ध हे। यहाँ स्थित दीवाने आम में महाराजा का निजी पुस्तकालय (पोथीखाना) एवं शास्त्रागार है।
- मुबारक महल :सिटी पैलेस में स्थित मुबारक महल का निर्माण सवाई माधोसिंह (1880 से 1922 ई.) ने करवाया था। इसका निर्माण अतिथियों के ठहरने के लिये करवाया गया था। बाद में इसमें महकमा खास खोला गया है। जयपुर सफेद संगमरमर एवं अन्य स्थानीय पत्थरों की सहायता से निर्मित यह आकर्षक भवन हिन्दू स्थापत्य कला का आदर्श नमूना हे। अब इसकी ऊपरी मंजिल में जयपुर नरेश संग्रहालय का वस्त्र अनुभाग है। एक समय का स्वागत महल आज एक अनुपम वस्त्राालय बन गया है आज यहाँ राजस्थानी शैली के विभिन्न प्रकार के वस्त्र व वेषभूषा देखने को मिलती है।
- हवामहल :1799 ई. में सवाई प्रतापसिंह ने इस पाँच मंजिल की भव्य इमारत का निर्माण करवाया। इस इमारत को उस्ताद लालचद कारीगर ने बनाया था। कहा जाता है कि प्रताप सिंह भगवान श्री कृष्ण के भक्त थे इसलिए इसका निर्माण मुकुट के आकार में करवाया। वर्तमान में इसे राजकीय संग्रहालय के रूप में परिवर्तित कर दिया गया है। राजकीय संग्रहालय का आंतरिक प्रवेश द्वार ‘आनन्द पोल‘ 18वीं शताब्दी के अंतिम चरण के प्रासाद स्थापत्य का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
– हवामहल की पहली मंजिल ‘शरद मंदिर‘, दूसरी ‘रत्न मंदिर‘, तीसरी ‘विचित्र मंदिर‘, चौथी मंजिल ‘प्रकाश मंदिर‘ और पाँचवी मंजिल ‘हवा मंदिर‘ के नाम से जानी जाती है। उस जमाने में पर्दा प्रथा का रिवाज था इसलिए हवामहल का निर्माण रानियों के आवास के लिए करवाया गया था ताकि वे यहीं रहकर बड़ी चौपड़ पर होने वाली चहल-पहल, गतिविधियों और जुलूस का नजारा कर सके।
- सिसोदिया रानी का महल एवं बाग :सवाई जयसिंह द्वितीय की महारानी सिसोदिया ने 1779 में इसका निर्माण करवाया। महल में एक मण्डप है जो बरामदों व गैलेरियों से घिरा हुआ है इसके नीचे तहखाने बने हुए हैं और सामने ऊँची-नीची छतों से बना हुआ सुन्दर उद्यान है।
- जलमहल :जयपुर से आमेर के मार्ग पर आमेर की घाटी के नीचे ‘जयसिंहपुरा खोर‘ गाँव के ऊपर दो पहाड़ियों के बीच तंग घाटी को बांधकर एवं ‘कनक वृन्दावन‘ एवं ‘फूलों की घाटी‘ के पास स्थित जलमहल (मानसागर झील) का निर्माण जयपुर के मानसिंह द्वितीय ने नैसर्गिक सौन्दर्य एवं मनोरंजन के लिए करवाया था। जलमहल के बीचों-बीच स्थित सुन्दर राजप्रासाद में कलात्मकता के दर्शन होते हैं।
– सवाई प्रताप सिंह ने सन् 1799 में इसका निर्माण मानसागर तालाब के रूप में करवाया था। हाल ही में नाहरगढ़ पहाड़ियों से घिरे इस जलमहल का कायाकल्प करने व इसे पर्यटन के हिसाब से ढालने के लिए सरकार ने 25 करोड़ रुपये स्वीकृत किये हैं।
- सामोद महल :चौमूं से 9 किलोमीटर दूर स्थित इस महल में शीशमहल एवं सुल्तान महल दर्शनीय है। शीशमहल में काँच का काम तथा सुल्तान महल में शिकार के दृश्य तथा प्रणय दृश्यों का अनुपम अंकन किया गया है। सम्प्रति यहाँ विभिन्न फिल्मों की शूटिंग होती रहती है।
झुन्झुनूँ
- खेतड़ी महल :झुन्झुनूँ के 9 महलों के क्षेत्रों में अवस्थित खेतड़ी महल अपने प्रकार का प्राचीन और आकर्षक महल है जिसे खेतड़ी के राजा भोपालसिंह ने सन् 1760 में ग्रीष्म ऋतु के विश्राम के लिए बनाया था। इनमें पाँच मंजिलों और तीन तरफा महल की सात मंजिली कटोरेनुमा बुर्ज है। ऊपर से यह महल मुकुट (ताज) की शक्ल का है। महल में कई बारादरियाँ है जो राजाओं की शान-शौकत की प्रतीक है। शेखावाटी में बेजोड़ स्थापत्य कला के लिए प्रसिद्ध यह महल राजस्थान का दूसरा हवामहल कहलाता है।
कोटा
- अभेड़ा महल :कोटा के पास चम्बल नदी के किनारे स्थित ऐतिहासिक महल जिसे राज्य सरकार पर्यटक केन्द्र के रूप में विकसित कर रही है।
अजमेर
- मान महल :आमेर के राजा मानसिंह द्वारा निर्मित जो वर्तमान में होटल सरोवर के रूप में जाना जाता है।
टोंक
- राजमहल :यह महल बनास नदी के किनारे स्थित है। इस महल के पास बना, डाई और खारी नदियों का संगम है। यहीं पर गोकर्णेश्वर महादेव, बीसलदेव का मंदिर है।
बीकानेर
- लालगढ़ महल :बीकानेर में स्थित बलुए पत्थर से निर्मित इस इमारत का निर्माण गंगासिंह द्वारा अपने पिता लालसिंह की स्मृति में करवाया गया। यह इमारत पूर्णतः यूरोपियन शैली पर आधारित है। वर्तमान में इसमें अनूप संस्कृत लाइब्रेरी एवं सार्दुल संग्रहालय स्थित है।
श्रीगंगानगर
- रंगमहल :इस स्थल पर खुदाई का कार्य 1952-54 में डॉ. हन्नारिड़ के नेतृत्व में स्वीडिश दल द्वारा शुरू किया गया। यहाँ खुदाई से मिट्टी के बर्तन, आभूषण, पूजा के बर्तन तथा 105 ताँबे की मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं जो ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी से 300 ईस्वी के है।
जोधपुर
- एक थम्बा महल :मंडोर स्थित ‘प्रहरी मीनार‘ के नाम से प्रसिद्ध तीन मंजिला भवन जिसे महाराजा अजीत सिंह के शासनकाल में निर्मित किया गया।
जैसलमेर
- बादल महल: जैसलमेर के महारावलों के निवास हेतु बने बादल विलास शिल्प कला का बेजोड़ नमूना है। इस इमारत का निर्माण 1884 में सिलावटों द्वारा किया गया जिसे उन्होंने तत्कालीन महारावल वैरीशाल सिंह को भेंट कर दिया। बादल विलास में बना पाँच मंजिला ताजिया टावर दर्शनीय है।
डूंगरपुर
- जूना महल :1500 फीट की ऊँचाई पर 13वीं सदी में निर्मित यह महल आकर्षक भित्ति चित्रों व शीशे के कार्य़ों से अलंकृत है। इस महल की नींव महारावल वीर सिंह ने 12वीं सदी के अंत में रखी थी।
- बादल महल :गैप सागर तालाब में बादल महल स्थित हैं इसका निर्माण महारावल वीरसिंह ने करवाया। दुमंजिले बादल महल में 6 गोखड़े व प्रवेश द्वार है।
उदयपुर
- राजमहल :इस महल का निर्माण राणा उदयसिंह ने करवाया। पिछोला झील के तट पर स्थित इस महल को प्रसिद्ध इतिहासकार फर्ग्यूसन ने राजस्थान के विण्डसर महल की संज्ञा दी है। राजमहल में मयूर चौक पर बने 5 मयूरों का सौन्दर्य अनूठा है।
– यहीं महाराणा प्रताप का वह ऐतिहासिक भाला रखा है जिससे हल्दीघाटी के युद्ध में आमेर के मानसिंह पर प्रताप ने वार किया था।
चित्तौड़गढ़
- पद्मिनी महल :सूर्यकुण्ड के दक्षिण में तालाब के मध्य में बने स्थित रावल रत्नसिंह की रानी पद्मिनी का महल दर्शनीय है।
- एक जैसे 9 महल – नाहरगढ़ (जयपुर)
- इन महलों का निर्माण सवाई माधोसिंह द्वितीय ने करवाया था। इन महलों के नाम सूरजप्रकाश, खुशहाल प्रकाश, जवाहर प्रकाश, ललित प्रकाश, चन्द्रप्रकाश, रत्नप्रकाश तथा बसन्तप्रकाश हैं। ये महल उनकी 9 पासवानों के लिए बनवाऐ गये थे तथा नाहरगढ़ दुर्ग में स्थित हैं।
- डीग के जलमहल (डीग) भरतपुर –सर्वप्रथम 1725 ई. में राजा बदनसिंह ने डीग महल का निर्माण करवाया था। इसके बाद डीग के जलमहल का निर्माण भरतपुर के जाट राजा सूरजमल ने 1755 से 1765 ई. के बीच में करवाया। डीग के महलों में गोपाल महल, सबसे अधिक भव्य व बड़ा है। डीग को जलमहलों की नगरी भी कहा जाता है।
- उम्मेद पैलेस (जोधपुर) –इस भव्य राजप्रसाद का निर्माण जोधपुर के शासक उम्मेदसिंह ने करवाया था। इस महल की नींव 18 नवम्बर, 1928 को रखी गई और यह 1940 में पूर्ण हुआ। यह महल छीत्तर पत्थर से बना होने के कारण छीत्तर पैलेस भी कहलाता है। इस महल का निर्माण भीषण अकाल में जनता को रोजगार उपलब्ध कराने के उद्देश्य से करवाया गया था। यह विश्व का सबसे बड़ा रिहायशी महल है।
- जसवंत थड़ा (जोधपुर) –मेहरानगढ़ दुर्ग की तलहटी में स्थित इस भवन का निर्माण राजा सरदारसिंह ने राजा जसवंतसिंह की याद में 1906 ई. में करवाया था। यह सफेद संगमरमर से निर्मित एक भव्य इमारत है। यह ‘मारवाड़ का ताजमहल/राजस्थान का ताजमहल’ कहलाता है।
- सुनहरी कोठी (टोंक) –सुनहरी कोठी का निर्माण का प्रारम्भ 1824 ई. में नवाब वजीउद्दौला खां ने 10 लाख रु. खर्च कर करवाया था। छत को सोने की परत से ढका गया है। इस सोने की परत पर बहुरंगी मीनाकारी व कुछ कांच भी लड़े हुए हैं। इसी कारण यह शीश महल के नाम से भी जानी जाती थी। इस कोठी की पहली मंजिल टोंक जिले के दूसरे नवाब वजीउद्दौला ने सन् 1834 में करवाया था। दूसरी मंजिल नवाब मोहम्मद इब्राहीम अली खाँ ने सन् 1870 में बनवाई। इसका सबसे पहले नाम ‘जरनिगार’ रखा गया था।
- मुबारक महल (टोंक) –टोंक जिले में सुनहरी कोठी के दायरे में स्थित हैं। जिसमें बकरा ईद के अवसर पर ऊंट की कुर्बानी दी जाती है। यह महल ऊँट की कुर्बानी के लिए प्रसिद्ध है।
- अमली (अबली) मीणी का महल –इस महल का निर्माण कोटा के राव मुकुंदसिंह ने इनकी चहेती पासवान अमली मीणी के लिए करवाया था। इसे ‘राजस्थान का दूसरा या छोटा ताजमहल’ भी कहा जाता है। कर्नल जेम्स टॉड ने कहा।
- जगमन्दिर पैलेस –यह महल पिछोला झील के मध्य में एक बड़े टापू पर बना हुआ है। इस महल को महाराणा कर्णसिंह ने बनवाना प्रारम्भ किया था। जिसको महाराणा जगतसिंह-I द्वारा 1651 में पूर्ण करवाया गया। इसी जगमन्दिर में शहजादा खुर्रम ने अपने पिता जहाँगीर से विद्रोह करने पर तथा 1857 ई. की क्रान्ति में नीमच से भागे अंग्रेजों ने शरण ली।
- जगनिवास महल (लैक पैलेस) –इसका निर्माण महाराणा जगतसिंह द्वारा 1746 ई. में करवाया गया था। यहाँ की खूबसूरती व सुन्दरता को देखकर शाहजहाँ को ताजमहल बनाने की प्रेरणा मिली थी।
राजस्थान की बावड़ियाँ देवल एवं छतरियाँ
- नीमराणा की बावड़ी –नीमराणा (अलवर) में इस 9 मंजिली बावड़ी का निर्माण राजा टोडरमल ने करवाया था।
- आलूदा का बुबानिया कुण्ड –दौसा के समीप के आलूदा गाँव में ऐतिहासिक बावड़ी में बने कुंड बुबानिया (बदली) के आकार में निर्मित है।
- चाँदबावड़ी (आभानेरी बावड़ी) –बाँदीकुई रेलवे स्टेशन (दौसा) से 8 किमी. दूर साबी नदी के निकट चाँदबावड़ी के नाम से विख्यात आभानेरी बावड़ी का निर्माण 8वीं शदी में प्रतिहार निकुंभ राजा चाँद ने करवाया।
- नौलखा बावड़ी –डूँगरपुर के राजा आसकरण की चौहान वंश की रानी प्रेमल देवी द्वारा निर्मित।
- उदयबाव –डूँगरपुर में स्थित बावड़ी जिसका निर्माण डूँगरपुर महारावल उदयसिंह ने करवाया।
- त्रिमुखी बावड़ी –डूँगरपुर जिले में इसका निर्माण मेवाड़ महाराणा राजसिंह की रानी रामरसदे ने करवाया था।
- चमना बावड़ी –शाहपुरा (भीलवाड़ा) में स्थित भव्य और विशाल तिमंजिली बावड़ी जिसका निर्माण वि.सं. 1800 में
- औस्तीजी की बावड़ी –शाहबाद कस्बे (बाराँ) के पास दो बावड़ियाँ दर्शनीय है- औस्तीजी की बावड़ी तथा तपसी की बावड़ी।
- चोखी बावड़ी व बाईराज की बावड़ी बनेड़ा (भीलवाड़ा) में है।
- सीतारामजी की बावड़ी –भीलवाड़ा में स्थित इस बावड़ी में एक गुफा बनी हुई है। जिसमें बैठकर रामस्नेही सम्प्रदाय के प्रवर्तक स्वामी रामचरणजी ने 36 हजार पदों की रचना की तथा रामस्नेही सम्प्रदाय की स्थापना की।
- रानीजी की बावड़ी –बूँदी नगर में स्थित यह बावड़ी बावड़ियों का सिरमौर है। इस बावड़ी का निर्माण राव राजा अनिरुद्ध सिंह की विधवा रानी नाथावतजी ने 18वीं सदी के पूर्वार्द्ध में करवाया था।
- अनारकली की बावड़ी –रानी नाथावतजी की दासी अनारकली द्वारा वर्तमान छत्रपुरा क्षेत्र (बूँदी) में निर्मित।
- गुल्ला की बावड़ी, चम्पा बाग की बावड़ी व पठान की बावड़ी आदि बूँदी की अन्य प्रसिद्ध बावड़ियाँ हैं।
- बड़गाँव की बावड़ी –जयपुर-जबलपुर राजमार्ग-12 पर कोटा से 8 किमी. दूर पर स्थित इस बावड़ी का निर्माण कोटा रियासत के तत्कालीन शासक शत्रुसाल की पटरानी जादौण ने करवाया था।
- हाड़ी रानी की बावड़ी –टोडारायसिंह (टोंक) में विशालपुर में हाड़ी रानी की विशाल बावड़ी स्थित है।
- 1742 में बनी मेड़तणी बावड़ी, खेतानों की बावड़ी, जीतमल का जोहड़ा, तुलस्यानों की बावड़ी, लोहार्गन तीर्थस्थल पर बनी चेतनदास की बावड़ी तथा नवलगढ़ कस्बे की बावड़ी झुंझुनूँ जिले की मुख्य बावड़ियाँ हैं।
- गडसीसर सरोवर –जैसलमेर में इस सरोवर का निर्माण रावल गड़सी के शासनकाल में सन् 1340 में करवाया गया। इस कृत्रिम सरोवर का मुख्य प्रवेश द्वार ‘टीलों की पिरोल’ के रूप में विख्यात है।
- 1870 में निर्मित पन्नालाल शाह का तालाब, बगड़ का फतेहसागर तालाब, खेतड़ी का अजीत सागर तालाब, झुंझुनूँ के कुछ प्रमुख जलाशय हैं।
- तुंवरजी का झालरा –इसका निर्माण महाराणा अभयसिंह की रानी बड़ी तुंवरजी ने करवाया।
- तापी बावड़ी –जोधपुर में भीमजी का मोहल्ला व हटड़ियों के चौक के मध्य स्थित बावड़ी।
- देवकुण्ड, नैणसी बावड़ी, श्रीनाथजी का झालरा, हाथी बावड़ी आदि जोधपुर की अन्य प्रमुख बावड़ियाँ है।
- गुलाब सागर –सरदार मार्केट के पास गुलाब सागर का निर्माण जोधपुर महाराजा विजयसिंह ने अपनी पासवान गुलाबराय की स्मृति में करवाया।
- रानीसर-पदमसर, फतहसागर, तखतसागर आदि जोधपुर के अन्य जलाशय हैं।
- डिग्गी तालाब –अजमेर शहर में अजयमेरू पहाड़ियों के नीचे स्थित डिग्गी तालाब नैसर्गिक जलस्त्रोत है।
- सरजाबाव, कनकाबाव, मृगा बावड़ी आदि सिरोही के तालाब व बावड़ियाँ है।
- महिला बाग झालरा, जोधपुर– जोधपुर शहर में गुलाब सागर के पास यह झालरा सन् 1776 में महाराजा विजयसिंह की पासवान गुलाबराय द्वारा जनहितार्थ में बनवाया गया था। यहाँ महिलाओं का ‘लौटियों का मेला’ आयोजित होता था।
- बाटाडू का कुआँ– बाड़मेर के बाटाडू गाँव में रावल गुलाबसिंह द्वारा निर्मित संगमरमर का कुआँ, जिसे ‘रेगिस्तान का जलमहल’ कहा जाता है।
- टोंक जिले में टोडारायसिंह की विभिन्न बावड़ियों में सरडा रानी की बावड़ी अपनी विशेष कलात्मक बनावट के लिए प्रसिद्ध है। टोडारायसिंह के महल के पीछे रमणीक स्थल है जिसे बुद्ध सागर कहते हैं।
- पन्ना मीणा की बावड़ी– आमेर में स्थित इस बावड़ी का निर्माण 17वीं शताब्दी में मिर्जा राजा जयसिंह के काल में हुआ।
देवल और छतरियाँ
- देवल –जिन स्मृति स्मारकों में चरण या देवताओं की प्रतिष्ठा कर दी जाती है और जिनमें गर्भगृह शिखर, नन्दी मण्डप, शिवलिंग बनाया जाता है उन्हें देवल कहा जाता है।
- टहला की छतरियाँ –अलवर जिले के टहला कस्बे की छतरियाँ मध्यकालीन छतरी निर्माण तथा भित्ति चित्रकला की जीती-जागती प्रतिमाएँ हैं।
- बत्तीस खंभों वाली छतरी (जगन्नाथ कछवाहा की छतरी) मांडल, भीलवाड़ा– यह छतरी ‘आमेर के जगन्नाथ कछवाहा’ की स्मृति में शाहजहाँ द्वारा निर्मित है। जगन्नथ कछवाहा का मांडल में मेवाड़ सेना के विरुद्ध युद्ध में निधन हो गया था।
- थानेदार नाथूसिंह की छतरी, शाहबाद, बाराँ– थानेदार नाथूसिंह ने 20 सितम्बर, 1932 में डाकुओं से मुकाबला किया। उनकी स्मृति में कोटा महाराव उम्मेदसिंह ने इस छतरी का निर्माण करवाया।
- चौरासी खम्भों की छतरी, बूँदी –देवपुरा गाँव के निकट राव अनिरुद्ध द्वारा धाबाई देवा की स्मृति में 1683 में निर्मित।
- बनजारों की छतरियाँ –लालसोट (दौसा) में हैं।
- नरायणा (जयपुर)– नरायणा में गौरीशंकर तालाब के निकट भोजराज के बाग में खंगारोत शासकों की भव्य छतरियाँ है।
सवाई माधोपुर में कुकराज की घाटी में कुत्ते की छतरी बनी है।
अमरसिंह राठौड़ की छतरी नागौर में है।
मंडोर (जोधपुर) में ‘तैंतीस करोड़ देवताओं की साल’ महाराजा अभयसिंह के समय में बनाई गई।
मंडोर से 4 मील दूर ‘पंचकुण्ड’ नामक स्थान पर राव चूण्डा, राव रणमल, राव जोधा व राव गांगा की छतरियाँ है।
पंचकुण्ड के दक्षिण में मारवाड़ की रानियों की छतरियाँ स्थित है।
राव मालदेव के समय से मारवाड़ के अधिपतियों की छतरियाँ पंचकुण्डों के बजाय मंडोर में बनने लगी थी।
- राजा मानसिंह प्रथम की छतरी –यह आमेर से लगभग दो किमी. की दूरी पर स्थित है।
- गैटोर की छतरियाँ– इस समूह में जयपुर के महाराजा सवाई जयसिंह से लेकर माधोसिंह तक की छतरियाँ है।
- महाराणा प्रताप की छतरी –मेवाड़ में महाराणा प्रताप की छतरी केजड़ बाँध पर चावण्ड के पास बांडोली में है।
- आहड़ की छतरियाँ (महासतियाँ)– उदयपुर नगर से दो मील दूर आहाड़ (प्राचीन आघाटापुर) नामक स्थान पर महाराणा अमरसिंह से अब तक के सारे राणाओं की छतरियाँ विद्यमान हैं। इसमें महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय की छतरी सबसे भव्य एवं विशाल है।
- देवकुण्ड की छतरियाँ– बीकानेर से 5 मील दूर देवकुण्ड में राव जैतसी के समय से राजाओं, रानियों, पासवानों और उनकी संतानों की छतरियाँ बनी हैं। इन सबमें पुरानी छतरी राव कल्याणमल की छतरी है।
- गोवर्धन– मारवाड़ में वीर पुरुषों के गौरक्षार्थ दिवंगत हो जाने पर जो समाधि स्थल बने, वे गोवर्धन कहलाते हैं।
- मंडोर के देवल –जोधपुर नगर से छह मील दूर मारवाड़ की प्राचीन राजधानी मण्डोर में जोधपुर के राजाओं की छतरियाँ निर्मित हैं। इसका प्राचीन नाम ‘माण्डव्यपुर’ है। मंडोर में सबसे प्राचीन राव गांगा की छतरी है।
- संत रैदास की छतरी– चित्तौड़गढ़ दुर्ग में मीरां के मंदिर के सामने संत रैदास की छतरी स्थित है।
- मूसी महारानी की छतरी– अलवर राजप्रासाद के पिछवाड़े सागर के किनारे महाराजा बख्तावर सिंह और मूसी महारानी की स्मृति में 80 खंभों पर बनी इस दो मंजिली छतरी का निर्माण अलवर महाराजा विनयसिंह ने करवाया था।
- अजीत सिंह का देवल– जोधपुर के मण्डोर उद्यान में बना महाराजा अजीत सिंह का देवल स्थापत्य कला का अनुपम उदाहरण है, जिसका निर्माण संवत् 1850 (सन् 1793 ई.) में करवाया गया था।
- नैड़ा की छतरियाँ –ये अलवर में सरिस्का वन क्षेत्र में है।