राजस्थान सामान्य ज्ञान : दुर्ग, महल, बावड़ियाँ, देवल एवं छतरियाँ

 

 

  1. बूँदी का किला (तारागढ़)
  • हाड़ा राजपूतों के शौर्य और वीरता का प्रतीक बूंदी का तारागढ़ पर्वतशिखरों से सुरक्षित होने के साथ-साथ नैसर्गिक सौन्दर्य से भी ओत-प्रोत है। यह गिरि दुर्ग की श्रेणी में आता है।
  • बूंदी और उसका निकटवर्ती प्रदेश (कोटा सहित) दीर्घकाल तक हाड़ा राजवंश द्वारा शासित होने के कारण हाड़ौती के नाम से विख्यात है।
  • बूंदी के ख्यातनाम डिंगल कवि और इतिहासकार सूर्यमल्ल मिश्रण द्वारा लिखित वंश भास्कर में इस क्षेत्र के हाड़ौती नाम के बारे में उल्लेख किया गया है। यह उल्लेख है-

“हड्डन करि विख्यात हुब, हड्डवती यह देस“

  • उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार बम्बावदे के हाड़ा शासक देवसिंह (राव देवा) ने बूंदी की घाटी के अधिपति जैता मीणा को पराजित कर बूंदी को अपनी राजधानी स्थापित किया।
  • राव देवा के वंशज (प्रपौत्र) राव बरसिंह ने मेवाड़, मालवा और गुजरात की ओर से संभावित आक्रमणों से सुरक्षा हेतु बूंदी के पर्वतशिखर पर एक विशाल दुर्ग का निर्माण करवाया जो तारागढ़ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। पर्वत की ऊंची चोटी पर स्थित होने के फलस्वरूप धरती से आकाश के तारे के समान दिखलाई पड़ने के कारण कदाचित इसका नाम तारागढ़ पड़ा। इसी नाम का एक ओर भी दुर्ग है अजमेर का तारागढ़।
  • इस दुर्ग के प्रसिद्ध महलों में छत्रमहल, अनिरुद्ध महल, रतन महल, बादल महल और फूल महल आदि हैं।
  • बूंदी के राजमहलों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इनके भीतर अनेक दुर्लभ एवं जीवन्त भित्तिचित्रों के रूप में कला का एक अनमोल खजाना विद्यमान है। विशेषकर महाराव उम्मेदसिंह के शासनकाल में निर्मित चित्रशाला (रंगविलास) बूंदी चित्रशैली का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करती है।
  • इस दुर्ग के प्रमुख द्वार है हाथीपोल, गणेशपोल तथा हजारी पोल। हाथीपोल के दोनों तरफ हाथियों की सजीव पाषाण प्रतिमायें लगी हैं जिन्हें महाराव रतनसिंह ने वहां स्थापित करवाया था।
  • यहां चौरासी खम्भों की छतरी, शिकार बुर्ज तथा फूलसागर, जैतसागर और नवलसागर सरोवर बूंदी के विगत वैभव की झलक प्रस्तुत करते हैं।
  • वंश भास्कर में बूंदी नगर की प्रशंसा में सूर्यमल्ल मिश्रण ने ठीक ही कहा है-

पाटव प्रजापति को, नाक नाकहू को छिति।

मण्डल को छोगा, बूंदी नगर बखानिये।।

  • बूंदी के दुर्ग की रक्षा में हाड़ा राजपूतों का शौर्य एवं बलिदान आज भी अमर है। मेवाड़ के राणा लाखा जब अथक प्रयासों के बावजूद भी बूंदी पर अधिकार न कर सके तो उन्होंने मिट्टी का नकली दुर्ग बनवा उसे ध्वस्त कर अपने मन की आग बुझाई। परन्तु इस नकली दुर्ग के लिए भी मानधनी कुम्भा हाड़ा ने अपने प्राणों की बाजी लगा दी तथा हाड़ाओं की प्रशस्ति में कही गई उक्ति को चरितार्थ कर दिखाया-

बलहठ बंका देवड़ा, करतब बंका गौड़।

हाड़ा बांका गाढ़ में, रणबंका राठौड़।।

  • जहांगीर के शासनकाल में शहजादे खुर्रम (शाहजहां) ने अपने पिता के विरूद्ध झण्डा खड़ा किया तो बूंदी के राव रतनसिंह हाड़ा ने उसे शरण दी तथा एक अवसर पर शहजादे की प्राणरक्षा भी की जिस आशय में यह दोहा प्रसिद्ध है-

सागर फूटा जल बहा, अब क्या करे जतन्न।

जाता घर जहांगीर का, राख्या राव रतन्न।।

  • अंग्रेजी के प्रख्यात उपन्यासकार, कहानी लेखक और कवि रूपयार्ड किपलिंग (1865-1936) जब बूंदी आए थे, वे सुख महल में ठहरे थे उन्होंने यहां के वास्तु निर्माण की प्रशंसा की थी।
  1. आबू दुर्ग (अचलगढ़)
  • प्राचीन शिलालेखों और साहित्यिक ग्रंथों में आबू पर्वत को अर्बुद गिरि अथवा अर्बुदाचल कहा गया है। अर्बुदाचल स्थित अचलगढ़ एक प्राचीन दुर्ग हे। आबु का पुराना किला परमार शासकों द्वारा बनवाया गया था।
  • सन् 1452 के लगभग मेवाड़ के पराक्रमी महाराणा कुम्भा ने इसी प्राचीन दुर्ग के भग्नावशेषों पर एक नये दुर्ग का निर्माण करवाया, जो अभी अचलगढ़ के नाम से प्रख्यात है।
  • आबू पर्वतांचल में स्थित अनेक देव-मंदिरों के कारण कर्नल टॉड ने आबू पर्वत को हिन्दू ओलम्पस (देव पर्वत) कहा है।
  • अलेक्जेण्डर किनलॉक फार्ब्स द्वारा लिखित ‘रासमाला‘ में आबू दुर्ग के बारे में विवरण मिलता है।
  • कविराजा श्यामलदास ने वीर विनोद में अचलगढ़ के बारे में लिखा है- ‘अचलेश्वर मंदिर के पीछे एक पहाड़ी पर परमारों का प्राचीन गढ़ ‘अचलगढ़‘ है जो विक्रमी संवत् 1507 (1452 ई.) के करीब महाराणा कुम्भा द्वारा बनवाया हुआ कहा जाता है। इस गढ़ के भीतर दो जैन मंदिर हैं- ऋषभदेव का और दूसरा पार्श्वनाथ का।
  • आबू के परमारों की राजधानी थी-चन्द्रावती, जिसके खण्डहर आज भी आबू पर्वत की तलहटी में बनास नदी के किनारे वन्य प्रदेश में विद्यमान है। उस संदर्भ में एक दोहा-

पृथ्वी पंवारा तणी अनै पृथ्वी तणे पंवार।

एका आबू गढ़ बेसणो, दूजी उज्जेनी धार।।

  • इस प्राचीन दुर्ग के साथ परमार शासकों की वीरता और पराक्रम का रोमांचक इतिहास जुड़ा है। आबू के परमार राजवंश के धरणीवराह एक प्रतापी शासक हुआ जनश्रुति है कि उसने अपने नौ भाईयों में राज्य बांट दिया था और उनकी नौ राजधानियाँ नवकोटि मारवाड़ कहलायी।
  • मध्ययुग में गुजरात की तरफ से होने वाले संभावित आक्रमणों से सुरक्षा की दृष्टि से आबू दुर्ग विशेष सामरिक महत्व का था।
  • जनश्रुति है कि महमूद बेगड़ा जब अचलेश्वर के नन्दी सहित अन्य देव प्रतिमाओं को खण्डित कर विशाल पर्वतीय घाटी में उतर रहा था तब देवी प्रकोप हुआ। मधुमक्खियों का एक बड़ा दल आक्रमणकारियों पर टूट पड़ा। उस घटना की स्मृति में वह स्थान आज भी ‘भंवराथल‘ के नाम से प्रसिद्ध है।
  • आबू पर्वत के अधिष्ठाता देव अचलेश्वर महादेव ही है। इस मंदिर में शिवलिंग न होकर केवल एक गड्ढ़ा है, जिसे ब्रह्मखड्ड कहा जाता है। इस स्थान पर शिव के पैर का अंगूठा प्रतीकात्मक रूप में विद्यमान है।
  • अचलेश्वर महादेव के पास ही एक विशाल कुण्ड है जो लगभग 900 फीट लम्बा और 240 फीट चौड़ा है। यह कुण्ड मन्दाकिनी कुण्ड कहलाता है। इस कुण्ड से पूर्व की तरफ परमार राज्य के संस्थापक आदि परमार की पाषाण प्रतिमा स्थापित है जिसमें वह अपने तीर से भैंस का रूप धारण किये राक्षसों का वध कर रहा है। जो रात्रि के समय अग्निकुण्ड का पवित्र जल पी जाया करते थे।
  • आदि परमार की मूर्ति के बारे में कर्नल टॉड के शब्द- ‘सफेद संगमरमर की बनी यह मूर्ति लगभग 5 फीट ऊंची है और मूर्तिकला में बाडोली के स्तम्भों पर बनी हुई मूर्तियों के अतिरिक्त भारत में मेरे द्वारा देखी हुई सभी मूर्तियों से बढ़कर है।‘
  • मंदाकिनी कुण्ड के पास सिरोही के महाराव मानसिंह की छतरी है, जिसे कल्ला परमार ने कटार से वार करके मारा था।
  • इस दुर्ग के अन्दर कुम्भा के राजप्रसाद, उनकी रानी का महल, अनाज के कोठे, सावन-भादो झील, परमारों द्वारा निर्मित खतरे की सूचना देने वाली बुर्ज (Alarm tower) आदि के भग्नावशेष विद्यमान है।

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