बीकानेर शैली
रायसिंह- इन्होंने मुगल कलाकारों की दक्षता से प्रभावित होकर उनमें से कुछ को अपने साथ ले आये। इनमें उस्ता अली रजा व उस्ता हामिद रुकनुद्दीन प्रमुख थे।
गजसिंह- इनके समय बीकानेर राज दरबार में मुख्य चित्रकार शाह मुहम्मद थे जो कि लाहौर से आये थे।
राजा अनूपसिंह- इनके काल में बीकानेर शैली का समृद्ध काल देखने को मिलता है।
– इनके समय के प्रमुख चित्रकारों में अलीरजा, हसन और रामलाल आदि के नाम उल्लेखनीय है।
महाराजा डूंगरसिंह- इनके शासनकाल में बीकानेर शैली में मुगल प्रभाव कम होता चला गया और यूरोपीयन प्रभाव की ओर से यहां की चित्रकला का प्रभाव बढ़ा।
बीकानेर में कर्णसिंह और कल्याणमल ने भी चित्रकला को पूरा संरक्षण प्रदान किया। सबसे प्राचीन रेखांकन राव कल्याणमल के समय का है।
मेघदूत- बीकानेर की मौलिक शैली के सर्वप्रथम दर्शन हमें कालिदास के मेघदूत में मिलते हैं।
उस्ता कला- इस शैली के उद्भव का श्रेय उस्ता कलाकारों को दिया जाता है। यह बीकानेर शैली की निजी विशेषता है। बीकानेर के चित्रकार अनेक चित्रों पर अपना नाम और तिथि अंकित करते थे।
– मथेरणा व उस्ता परिवार बीकानेर शैली के प्रसिद्ध परिवार रहे हैं।
– बीकानेर शैली पर मुगल शैली का सर्वाधिक प्रभाव पड़ा। बीकानेर के चित्रकार अधिकतर मुसलमान थे।
हरमन गोएट्ज- जर्मन कलाविद्, इन्होंने बीकानेर की लघु चित्र शैली के उद्भव के संबंध में आर्ट एण्ड आर्किटेक्ट ऑफ बीकानेर पुस्तक की रचना की।
राजपूत पेंटिंग्ज बीकानेर शैली अपने व्यक्तित्व का बोध कराती है और इसका दृष्टिकोण अत्यन्त मार्मिक है।
प्रमुख चित्र- कृष्ण लीला, भागवत् गीता, भागवत् पुराण (बीकानेर शैली का प्रारंभिक चित्र, महाराजा रायसिंह के समय चित्रित), रागमाला, बारहमासा, रसिकप्रिया, रागरागिनी, शिकार महफिल तथा सामंती वैभव के दृश्य इत्यादि।
बीकानेर शैली के चित्रों में पीले रंग का सर्वाधिक प्रयोग किया गया है।
पुरुष आकृति- दाढ़ी-मूंछों युक्त वीर भाव प्रदर्शित करती हुई उग्र आकृति।
– वेशभूषा- ऊंची शिखर के आकार की पगड़ी, फैला हुआ जामा, पीठ पर ढाल और हाथ में भाला लिये हुए।
स्त्री आकृति- इकहरी तन्वंगी नायिका, धनुषाकार भृकुटी, लम्बी नाक, उन्नत ग्रीवा एवं पतले अधर।
– वेशभूषा- तंग चोली, घेरदार घाघरा, मोतियों के आभूषण एवं पारदर्शी ओढ़नी।
किशनगढ़ शैली
इस शैली को प्रकाश में लाने का श्रेय एरिक डिक्सन व डॉ. फैयाज अली को है। एरिक डिक्सन व कार्ल खंडालवाड़ की अंग्रेजी पुस्तकों में किशनगढ़ शैली के चित्रों के सम्मोहन और उनकी शैलगत विशिष्टताओं को विश्लेषित किया गया है।
किशनगढ़ की स्थापना की नींव किशनसिंह ने सन् 1609 में रखी।
किशनगढ़ चित्र शैली का विकास रूप सिंह के पुत्र मानसिंह (1658-1706) के समय प्रारंभ हुआ।
सांवतसिंह (नागरीदास) का शासनकाल किशनगढ़ शैली का समृद्ध काल था। किशनगढ़ को सर्वाधिक ख्याति इनके शासनकाल में मिली।
– ये ब्रजभाषा में भक्ति और शृंगार की रचनाएं करते थे। इस युग को किशनगढ़ शैली का स्वर्ण युग माना जात है। इनका शासन काल 1699 से 1764 ई. तक का था।
किशनगढ़ शैली को उत्कृष्ट स्वरूप प्रदान करने का श्रेय राजा सावंतसिंह, बणी-ठणी और मोरध्वज निहालचन्द को दिया जाता है।
बनी-ठनी/बणी ठणी- सावंतसिह की प्रेयसी। बणी ठणी को उस काल के चित्रकारों ने राधा के प्रतीक के रूप में चित्रित किया है।
– विख्यात कलाकार निहालचन्द ने भक्त नागरीदास तथा उकनी प्राण प्रेयसी बनी बनी-ठणी को राधा और कृष्ण का रूप देकर उनके जीवन को चित्रबद्ध किया।
– किशनगढ़ चित्र शैली के इस चित्र में नारी सौंदर्य की पूर्ण अभिव्यक्ति है। यह चित्र सन् 1778 का है जिसका आकार 48.8 × 36.6 सेमी. है।
– यह आज भी किशनगढ़ महाराजा के संग्रहालय में सुरक्षित है जिसकी एक मौलिक प्रति अल्बर्ट हॉल पेरिस में है जो सौंदर्य में मोनालिसा से आगे हैं।
– एरिक डिक्सन ने बनी-ठणी को भारतीय मोनालिसा की संज्ञा दी।
– किशनगढ़ शैली की राधा (बनी-ठणी) का चित्र डाक-टिकटों के माध्यम से प्रसिद्ध हुआ जो भारत सरकार के डाकतार विभाग द्वारा 5 मई, 1973 को जारी किया गया था।
पुरुष आकृति- समुन्नत ललाट, पतले अधर, लम्बी आजानुबाहें, छरहरे पुरुष, लम्बी ग्रीवा, मादक भाव से युक्त नृत्य, नकीली चिबुक।
– वेशभूषा- कमर में दुपट्टा, पेंच बंधी पगड़िया, लम्बा जामा।
स्त्री आकृति- लम्बी नाक, पंखुड़ियों के समान अधर, लम्बे बाल, लम्बी व सुराहीदार ग्रीवा, पतली भृकुटी (बत्तख, हंस, सारस, बगुला) के चित्र। इस शैली में भित्ति चित्रण व रागरागिनी चित्रण नहीं मिलता है।
किशनगढ़ शैली में गुलाबी व सफेद रंगों को प्रमुखता दी गई है।
किशनगढ़ शैली मे मुख्यतः केले के वृक्ष को चित्रित किया गया है।
वेसरि- किशनगढ़ शैली में प्रयुक्त नाक का प्रमुख आभूषण।
चांदनी रात की संगोष्ठी- किशनगढ़ चित्रकला शैली में चित्रकार अमरचंद द्वारा सावंतसिंह के शासनकाल के दौरान बनाया गया चित्र।