राजस्थानी चित्रकला की विभिन्न पद्धतियाँ :
- जलरंग पद्धति-इसमें मुख्यतः कागज का प्रयोग होता है। इस चित्रण में सेबल की तूलिका श्रेष्ठ मानी जाती है।
- वाश पद्धति-इस पद्धति में केवल पारदर्शक रंगों का प्रयोग किया जाता है। इस पद्धति में चित्रतल में आवश्यकतानुसार रंग लगाने के बाद पानी की वाश लगाई जाती है।
- पेस्टल पद्धति-पेस्टल सर्वशुद्ध और साधारण चित्रण माध्यम है। इसमें रंगत बहुत समय तक खराब नहीं होती।
- टेम्परा पद्धति-गाढ़े अपारदर्शक रंगों के प्रयोग को टेम्परा कहा जाता है। इसमें माध्यम के रूप में किसी पायस का उपयोग किया जाता है। पायस जलीय तरल में तैलीय अथवा मोम पदार्थ का मिश्रण होता है।
- तैलरंग विधि-तैल चित्रण के लिए विभिन्न प्रकार की भूमिका का प्रयोग किया जाता है। जैसे-कैनवास, काष्ठ फलक, मौनोसाइट/हार्ड बोर्ड, गैसों, भित्ति इत्यादि।
विभिन्न चित्रशैलियों की प्रमुखता
चित्र शैली | रंग | आँख | मुख्य वृक्ष |
जयपुर | हरा | मछलीनुमा | पीपल, वट |
जोधपुर | पीला | बादाम जैसी | आम |
मेवाड़ | लाल | – | कदम्ब |
कोटा | नीला | मछलीनुमा | खजूर |
किशनगढ़ | गुलाबी व सफेद | खंजन जैसी | केला |
मेवाड़ शैली
चित्रकला की सर्वाधिक प्राचीन शैली मेवाड़ शैली को विकसित करने में महाराणा कुंभा का विशेष योगदान रहा।
– यह चित्र शैली राजस्थानी चित्रकला का प्रारंभिक और मौलिक रूप है।
मेवाड़ में आरंभिक चित्र ‘श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र चूर्णी‘ (सावग पड़िकमण सुत चुन्नी) ग्रंथ से 1260 ई. के प्राप्त हुये हैं। इस ग्रंथ का चित्रांकन राजा तेजसिंह के समय में हुआ।
– यह मेवाड़ शैली का सबसे प्राचीन चित्रित ग्रंथ है। दूसरा ग्रंथ ‘सुपासनाह चरियम‘ (पार्श्वनाथ चरित्र) 1423 ई. में देलवाड़ा में चित्रित हुआ।
केशव की रसिक प्रिया तथा गीत गोविंद मेवाड़ शैली के श्रेष्ठ उदाहरण हैं।
प्रमुख विशेषताएं- भित्ति चित्र परम्परा का विशेष महत्व, रंग संयोजन की विशेष प्रणाली, मुख्य व्यक्ति अथवा घटना का चित्र, सजीवता और प्रभावोत्पादकता उत्पन्न करने के लिए भवनों का चित्रण, पोथी ग्रंथों का चित्रण आदि।
– इस शेली में पीले रंग की प्रधानता है। मेवाड़ शैली के चित्रों में प्रमुखतः कदम्ब के वृक्ष को चित्रित किया गया है।
– वेशभूषा- सिर पर पगड़ी, कमर में पटका, घेरदार जामा, कानों में मोती।
पुरुष आकृति- लम्बी मूंछें, विशाल आंखें, छोटा कद एवं कपोल, गठिला शरीर।
स्त्री आकृति- ओज एवं सरल भावयुक्त चेहरे, मीनकृत आंखें ठुड्डी पर तिल, लहंगा व पारदर्शी ओढ़नी, ठिगना कद, दोहरी चिबुक।
मेवाड़ शैली के प्रमुख चित्रकार- कृपाराम, भैंरूराम, नासिरूद्दीन, हीरानंद, जगन्नाथ, मनोहर, कमलचन्द्र।
प्रमुख चित्र- कृष्ण लीला, नायक-नायिका, रागमाला, बारह मासा इत्यादि विषयों से संबंधित।
राणा अमरसिंह प्रथम (1597 से 1620 ई.) के समय में रागमाला के चित्र चावंड में निर्मित हुये। इन चित्रों को निसारदीन ने चित्रित किया। इनका शासनकाल मेवाड़ शैली का स्वर्णयुग माना जाता है।
महाराणा अमरसिंह द्वितीय के काल में शिव प्रसन्न अमर-विलास महल मुगल शैली में बने जिन्हें आजकल ‘बाड़ी-महल‘ माना जाता है।
राणा कर्णसिंह के काल में मर्दाना महल एवं जनाना महल का निर्माण हुआ।
मेवाड़ में राणा जगतसिंह प्रथम का काल भी चित्रकला के विकास का श्रेष्ठ काल था।
– इस काल में रागमाला, रसिक प्रिया, गीगोविंद, रामायण इत्यादि लघु चित्रों का निर्माण हुआ।
– राणा जगतसिंह कालीन प्रमुख चित्रकार साहबदीन और मनोहर रहे हैं। साहबदीन की शैली का प्रभाव मेवाड़ में आज भी देखा जा सकता है।
– चितेरों की ओरी- महाराणा जगत सिंह प्रथम ने राजमहल में यह कला विद्यालय स्थापित किया। इसे ‘तसवीरां रो कारखानो‘ नाम से भी जाना जाता था।
महाराणा संग्रामसिह द्वितीय के पश्चात् साहित्यिक ग्रंथों के आधार पर लघु चित्रों की परम्परा लगभग समाप्त हो जाती है।
उदयपुर के राजकीय संग्रहालय में मेवाड़ शैली के लघु चित्रों का विशाल भण्डार है।
– यह विश्व में मेवाड़ शैली का सबसे विशाल संग्रह है। इस संग्रह में ‘रसिक प्रिया‘ का चित्र सबसे प्राचीन चित्र है।
पराक्रम शैली का विकास साधारण तौर पर उदयपुर से हुआ।