राजस्थान सामान्य ज्ञान : आनुवांशिकी से संबंधित सामान्य शब्दावली

आनुवांशिकी से संबंधित सामान्य शब्दावली

  • प्रत्येक जीव में प्रजनन की क्रिया द्वारा सन्तान उत्पन्न करने की अद्भुत क्षमता होती है। कुल लक्षण माता-पिता से सन्तान में पीढ़ी-दर-पीढ़ी पहुँचते रहते हैं। जिन्हें आनुवंशिक लक्षण कहा जाता है।
  • वंशागत लक्षणों का अध्ययन आनुवांशिकता के अन्तर्गत किया जाता है।
  • जीव विज्ञान की वह शाखा जिसके अन्तर्गत आनुवांशिक लक्षणों के माता-पिता से सन्तान में पहुँचने की रीतियों एवं आनुवांशिक समानताओं एवं विभिन्नताओं का अध्ययन किया जाता है। आनुवांशिक विज्ञान कहलाती है।

मेंडल के आनुवांशिकता के नियम

  • मटर के विभिन्न गुणों वाले पौधों के बीच संकरण कराके मेण्डल को जो परिणाम प्राप्त हुए, उनके आधार पर मेण्डल ने वंशागति के तीन महत्त्वपूर्ण नियम (मेण्डल के आनुवंशिकता के नियम) प्रतिपादित किए।

भावी गुणों या प्रबलता का नियम

  • जब परस्पर विरोधी लक्षणों वाले दो शुद्ध जनकों के बीच संकरण कराया जाता है तो उनकी सन्तानों में विरोधी लक्षणों में से एक लक्षण परिलक्षित होता है और दूसरा दिखाई नहीं देता। इसमें पहले को प्रभावी तथा दूसरे को अप्रभावी कहते हैं; जैसे-

पूर्ण प्रभाविता

  • कुछ लक्षणों की आनुवंशिकता के दौरान मेण्डल का ‘प्रभाविता का नियम’ पूरी तरह सही नहीं होता और अपूर्ण प्रभाव दर्शाता है। इसे अपूर्ण प्रभाविता (incomplete cominance) कहते हैं।

उदाहरण मिराबिलिस जलापा (Mirabilis jalapa = 4 O’ clock) में लाल (RR) और सफेद (rr) फूलों वाली किस्मों के बीच संकरण के फलस्वरूप F1 पीढ़ी में गुलाबी फूल उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार गुलाबी रंग, विषययुग्मजी फीनोटाइप (Rr) है।

  • इसका कारण यह है कि लाल रंग सफेद रंग पर पूरी तरह प्रभावी नहीं है। अब यदि F1पीढ़ी के गुलाबी पुष्पों में स्व-परागण होने दिया जाए तो F2 पीढ़ी में फीनोटाइप अनुपात 25% लाल (RR), 50% गुलाबी (Rr) व 25% सफेद (rr) प्राप्त होता है। F2 पीढ़ी में 25% लाल और 25% सफेद पुष्पी (मूल जनक के लक्षण) पौधों  का प्राप्त होना यह स्पष्ट करता है कि सम्मिश्रण नहीं होता है।

मेण्डल का पृथक्करण का नियम

  • इसमें दो विपरीत लक्षणों को क्रॉस कराया जाता है, तो F1पीढ़ी में दोनों लक्षण उपलस्थित होते है, लेकिन F2 पीढ़ी में दोनों लक्षण पृथक् हो जाते हैं।

स्वतन्त्र अपव्यूहन का नियम

  • जब दो जोड़ी विपरीत लक्षणों वाले पौधों के बीच संकरण कराया जाता है तो दोनों लक्षणों का पृथक्करण स्वतन्त्र रूप से होता है, एक लक्षण की वंशागति दूसरे को प्रभावित नहीं करता; जैसे-मेण्डल ने मटर के बीजों के रंग तथा आकार के लक्षणों के आधार पर पर-परागण कराया तो निम्न परिणाम निकला।
  • मेण्डल के उपरोक्त प्रतिपादित नियम कुछ विभिन्न स्थितियों में पूर्ण रूप सत्यता प्रदर्शित नहीं करते हैं, मेण्डल के नियमों के ये कुछ अपवाद जैसे अपूर्ण प्रभाविता, सहप्रभाविता संपूरक जीन एवं बहुविकल्पीकारक इत्यादि।

डी.एन.ए. एवं आर.एन.ए. की संरचना

  • DNA की अधिकांश मात्रा केन्द्रक में पाई जाती है पर इसकी कुछ मात्रा माइटोकॉण्ड्रिया व हरितलवक में भी मिलती है। यह सभी प्रकार की आनुवांशिक क्रियाओं को संचालित करती हैं, इसलिए इसे ‘जीवन का ब्लूप्रिन्ट’ भी कहते हैं जीन इसकी इकाई है तथा यह प्रोटीन संश्लेषण को नियन्त्रित करता है। ‘जीन’ शब्द सर डब्ल्यूएल जोहन्सन ने दिया। RNA का संश्लेषण DNA से होता है यह केन्द्रक एवं कोशिकाद्रव्य दोनों में पाया जाता है।
  • DNA की संरचना का अर्द्धसंरक्षी (semiconservative) मॉडल वॉटसन एवं क्रिक ने 1953 में दिया, जिसमें उन्होंने DNA के द्विरज्जुक अथवा द्विकुण्डली संरचना की व्याख्या थी। ऑर्थर कोर्नबर्ग ने DNA का सबसे पहला पात्र विश्लेषण किया।

गुणसूत्र की संरचना

  • गुणसूत्रों की संरचना का सुचारू रूप से अध्ययन कोशिका विभाजन की मध्यावस्था में किया जाता है। इस अवस्था में गुणसूत्रों का सर्वाधिक संघनन होता है जिससे ये सर्वाधिक छोटे व मोटे दिखाई पड़ते हैं। गुणसूत्र में पाये जाने वाले विभिन्न भाग इस प्रकार है-

(i) अर्धगुणसूत्र – मध्यावस्था में प्रत्येक गुणसूत्र में दो लम्बवत् भाग दिखाई देते हैं जिन्हें अर्धगुणसूत्र कहा जाता है। इस अवस्था में इन्हें पुत्री गुणसूत्र कहते हैं। अर्धगुणसूत्रों का निर्माण अंतरावस्था में ही हो जाता है। प्रत्येक अर्धगुणसूत्र में एक DNA का गुण पाया जाता है। अर्धगुणसूत्रों को क्रोमोनीमैटा भी कहा जाता है।

(ii) क्रोमीमीयर तथा वर्णकणिका – पूर्वावस्था में क्रोमोनीमैटा के ऊपर बिन्दुनुमा संरचनाएँ दिखाई देती है जिन्हें क्रोमोमीयर कहते हैं।

(iii) गुणसूत्र बिन्दु – गुणसूत्र के बीच में या किनारे की तरफ एक प्राथमिक संकीर्णन पाया जाता है जिसे सेन्ट्रोमीयर या काइनैटोकोर कहते हैं।

(iv) द्वितीयक संकीर्णन या न्यूक्लिओलर संगठक – केन्द्रक में एक जोड़ी गुणसूत्र पर एक द्वितीयक संकीर्णन क्षेत्र पाया जाता है। जिस गुणसूत्र में द्वितीयक संकीर्णन से केन्द्रिक जुड़ा रहता है उसे केन्द्रिक संगठन गुणसूत्र तथा उस स्थान को केन्द्रिक संगठक क्षेत्र कहते हैं।

(v)    अनुषंग या सैटेलाइट – गुणसूत्र का द्वितीयक संकीर्णन से ऊपर का भाग अनुषंग कहलाता है। ऐसे गुणसूत्र को सैटेलाइट गुणसूत्र कहते हैं। सैटेलाइट का स्थान और आकार निश्चित होने के कारण यह भी गुणसूत्र का विशिष्ट लक्षण माना जाता है।

(vi) अंतखंड या टीलोमीयर – गुणसूत्र के दोनों छोर अंतखंड कहलाते हैं। इनमें धुवता पाई जाती है।

  • रासायनिक संघटन– गुणसूत्र में निम्न अवयव पाये जाते हैं-
  1. न्यूक्लिक अम्ल – DNA एवं RNA
  2. प्रोटीन – ये दो प्रकार के होते हैं – क्षारीय प्रोटीन (हिस्टोन) और अम्लीय प्रोटीन (नोन-हिस्टोन)।
  3. खनिज लवण तथा आयन – Ca++, Mg++, Na+

मनुष्य में लिंग निर्धारण

  • मनुष्य में 46 गुणसूत्र होते हैं जिनमें 22 जोड़ी गुणसूत्र तो स्त्री व पुरूष में समान व 23वीं जोड़ी असमान होती है। स्त्रियों में यह (XX) व पुरूषों में XY होती है।
  • निषेचन की क्रिया में जब महिला के X गुणसूत्र का संयोग पुरूष के X गुणसूत्र से होती है, तो XX गुणसूत्र वाला युग्मनज बनेगा तथा संतान लड़की होगी। इसी प्रकार जब XY गुणसूत्र वाला युग्मनज बनेगा तो संतान लड़का होगा।
  • इस प्रकार स्पष्ट है कि लिंग निर्धारण में पुरूष का Y गुणसूत्र उत्तरदायी होता है।
  • जीन आनुवांशिक क्रिया की मूल इकाई है, जो गुणसूत्रों पर स्थित होते हैं। सभी जीन प्रायः N.A. के बने होते हैं।
  • N.A. के कूटित निर्देशों को राइबोसोम तक ले जाने का कार्य संदेशवाहक RNA (m-RNA) करती है।

 

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